Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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हैं, सांख्य सौख्य एवं वीर्य को और न्याय वैशेषिक ज्ञान और दर्शन को भी अस्वीकार कर देते हैं । बौद्ध शून्यवाद अस्तित्व का भी विानश कर देता है और चार्वाक दर्शन मोक्ष की धारणा को भी समाप्त कर देता है। वस्तुतः मोक्ष को अनिर्वचनीय मानते हुए भी विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के निराकरण के लिये ही मोक्ष की इस भावात्मक अवस्था का चित्रण किया गया है । भावात्मक दृष्टि से जैन विचारणा मोक्षावस्था में अनन्त चतुष्टय की उपस्थिति पर बल देती है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को जैन विचारणा में अनन्त चतुष्टय कहा जाता है। बीजरूप में यह अनन्त चतुष्टय सभी जीवात्माओं: में उपस्थित है, मोक्ष दशा में इनके अवरोधक कर्मों का क्षय हो जाने से ये गुण पूर्ण रूप में प्रकट हो जाते हैं। ये प्रत्येक आत्मा के स्वाभाविक गण हैं जो मोक्षावस्था में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त हो जाते हैं । अनन्त चतुष्टय में अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और अनन्त सौख्य आते हैं। लेकिन अष्टकर्मों के प्रहाण के आधार पर सिद्धों के आठ गुणों की मान्यता भी जैन विचारणा में प्रचलित है । १. ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट हो जाने से मुक्तात्मा अनन्त ज्ञान या पूर्ण ज्ञान से युक्त होता है । २. दर्शनावरण कर्म नष्ट हो जाने से अनन्त दर्शन से संपन्न होता है। ३. वेदनीय कर्म के क्षय हो जाने से विशुद्ध अनश्वर आध्यात्मिक सुखों से युक्त होता है। ४. मोह कर्म के नष्ट हो जाने से यथार्थ दृष्टि (क्षायिक सम्यक्त्व) से युक्त होता है । मोह कर्म के दर्शन मोह और चारित्र मोह ऐसे दो भाग किए जाते हैं । दर्शन मोह के प्रहाण से यथार्थ और चारित्र मोह के क्षय से यथार्थ चारित्र (क्षायिक चारित्र) का प्रकटन होता है लेकिन मोक्ष दशा में क्रियारूप चारित्र नहीं होता मात्र दृष्टि रूप चारित्र ही होता है । अतः उसे क्षायिक सम्यक्त्व के अंतर्गत ही माना जा सकता है। वैसे आठ कर्मों की ३१ प्रकृतियों के प्रहाण के आधार से सिद्धों के ३१ गुण माने गये हैं, उसमें यथाख्यात चारित्र को स्वतंत्र गुण माना गया है । ५. आयु कर्म के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है वह अजर अमर होता है। ६. नामकर्म का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा अशरीरी एवं अमूर्त होता, है अतः वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता है । ७. गोत्र कर्म के नष्ट हो जाने से अगुरुलघुत्व से युक्त हो जाता है। अर्थात् सभी सिद्ध समान होते हैं, उनमें छोटा-बड़ा या ऊँचनीच का भाव नहीं होता। ८. अन्तराय कर्म का प्रहाण हो जाने से बाधा रहित होता है अर्थात् अनन्त शक्ति संपन्न होता है।" अनन्त शक्ति का यह विचार मूलतः निषेधात्मक ही है। यह मात्र बाधाओं का अभाव है। लेकिन इस प्रकार अष्ट कर्मों के प्रहाण के आधार से मुक्तात्मा के आठ गुणों की व्याख्या की मात्र एक व्यावहारिक संकल्पना ही है। उसके वास्तविक स्वरूप का निर्वचन नहीं है । यह व्यावहारिक दृष्टि से उसे समझने का
प्रयास मात्र है । इसका व्यावहारिक मूल्य है । वस्तुतः तो वह अनिर्वचनीय है । आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सिद्धों के इन गुणों का विधान मात्र सिद्धात्मा के स्वरूप के संबंध में जो एकान्तिक मान्यताएँ हैं, उनके निषेध के लिये हैं । मुक्तात्मा में केवलज्ञान और केवलदर्शन के रूप में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग को स्वीकार करके मुक्तात्माओं को जड़ मानने वाली वैभाषिक, बौद्धों और न्याय-वैशेषिक की धारणा का प्रतिषेध किया गया है। मक्तात्मा के अस्तित्व या अक्षयता को स्वीकार कर मोक्ष को अभाव रूप में माननेवाली जड़वादी तथा सौत्रान्तिक बौद्धों की मान्यता का निरसन किया गया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्ष दशा का समग्र भावात्मक चित्रण निषेधात्मक मूल्य ही रखता है। यह विधान भी निषेध के लिये है ।
___ अभावात्मक दृष्टि से मोक्ष तत्व पर विचार:- जैनागमों में मोक्षावस्था का चित्रण निषेधात्मक रूप से भी हवा है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में मुक्तात्मा का निषेधात्मक चित्रण निम्नप्रकार से प्रस्तुत किया गया है । मोक्षावस्था में समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से मुक्तात्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है न वृत्ताकार है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, न परिमंडल संस्थान वाला है । न वह तीक्ष्ण, वह कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेतवर्ण वाला भी नहीं है । वह सुगंध और दुर्गधवाला भी नहीं है कट, खट्टा, मीठा, एवं अम्ल रस वाला है। उसमें गुरु, लघ, कोमल, कठोर, स्निग्ध, रूक्ष, शीत एवं उष्ण आदि स्पर्श गणों का भी अभाव है । वह न स्त्री है न, पुरुष है, न नपुसंक है। इस प्रकार मुक्तात्मा में रस, रूप, वर्ण, गंध और स्पर्श भी नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में मोक्ष दशा का निषेधात्मक चित्रण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं "मोक्ष दशा में सुख है, न दुःख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न जन्म है, न मरण है, न वहाँ इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न व्यामोह है, न निद्रा है, न बहाँ चिंता है, न आर्त और रोद्र विचार ही है। वहाँ तो धर्म (शुभ) और शुक्ल (प्रशस्त) विचारों का
भी अभाव है। 12" मोक्षावस्था तो सर्व-संकल्पों का अभाव है। १०. सदसिव संखो मक्कडि बद्धो णोयाइयो य वेसेसी। ईसर मंडलि दंसण विदूसणठे कयं एदं ।।
-गोम्मटसार (नेमिचन्द्र) ११. से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तसे, न चउरंसे, न परिमंडले, न
किण्हे, न नीले, न लोहिए, न हालिद्दे, न सुकिल्ले, न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, न कवखड़े, न मउए, न शुरूए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निढे, न लक्खे न काऊ, न रूहे. न संगे, न इत्थी, न पुरिसे न अन्नहा-से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे ।
-आचारांग सूत्र १।५।६। १२. णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीड़ा व णवि विज्जदे बाहा ।
णवि मरणं णवि जणणं, तत्थेव य होई णिव्वाणं ।। णिव इंदिय उवसग्गा णिवमोहो विझियो ण णिद्दाय । णय तिण्हा णेव छुहां, तत्थेव हवदि णिव्वाणं ।।
-नियमसार १७८-१७९
८. कुछ विद्वानों ने अगुरुलघुत्व का अर्थ न हलका न भारी
किया है। ९. प्रवचनसारोद्धार द्वार २७६ गाथा १५९३-१५९४
राजेन्द्र-ज्योति
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