Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
View full book text
________________
वी. नि. सं. २५०३
जैन, बौद्ध और गीता दर्शन में मोक्ष का स्वरूप एक तुलनात्मक अध्ययन
जैन तत्व मीमांसा के अनुसार संवर के द्वारा कर्मों के आगमन का निरोध हो जाने पर और निर्जरा के द्वारा समस्त पुरातन कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा को जो निष्कर्म शुद्ध अवस्था होती है उसे मोक्ष कहा जाता है । कर्म-फल के अभाव में कर्मजनित आवरण या बंधन भी नहीं रहते और यही बंधन का अभाव ही मुक्ति है । वस्तुतः मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है । " बंधन आत्मा की विरूपावस्था है और मुक्ति आत्मा की स्वरूपावस्था है। अनात्मा में ममत्व, आसक्ति रूप आत्माभिमान का दूर हो जाना यही मोक्ष है" और यही आत्मा की शुद्धावस्था है । बन्धन और मुक्ति की यह समग्र व्याख्या पर्याय दृष्टि का विषय है । आत्मा की विरूप पर्याय बन्धन है और स्वरूप पर्याय मोक्ष है । पर पदार्थ, पुद्गल, परमाणु या जड़ कर्म वर्गणाओं के निमित्त आत्मा में जो पर्यायें उत्पन्न होती हैं और जिनके कारण पर में आत्म-भाव (मेरापन ) उत्पन्न होता है, यही विरूप पर्याय है. परपरिणति है, स्व की पर में अवस्थिति है, यही बन्धन है और इसका अभाव ही मुक्ति है । बन्धन और मुक्ति दोनों एक ही आत्म- द्रव्य या चेतना की दो अवस्थाएँ मात्र हैं, जिस प्रकार स्वर्ण मुकुट और स्वर्ण कुंडल स्वयं की ही दो अवस्थाएँ हैं। लेकिन यदि मात्र, विशुद्ध तत्व दृष्टि या निश्चय नय से विचार किया जाय तो बंधन और मुक्ति दोनों की व्याख्या संभव नहीं है क्योंकि १. कमी:१०१ २. बन्ध वियोगो मोक्ष:- अभिधान राजेन्द्र खंड ६, पृष्ठ ४३१ ३. मुक्खो जीवस्स सुद्ध रूपस्स - वही खंड ६, पृष्ट ४३१ ४. तुलना कीजिये (अ) आत्मा मीमांसा ( इलसुखभाई)
Jain Education International
डॉ. सागरमल जैन
पृष्ठ ६६-६७
(ब) ममेति वपते जन्तुममेति प्रमुच्यते
गरुड़ पुराण
आत्मतत्व स्वरूप का परित्याग कर परस्वरूप में कभी भी परिणत नहीं होता । विशुद्ध तत्व दृष्टि से तो आत्मा नित्यमुक्त है। लेकिन जब तत्व की पर्यायों के संबंध में विचार प्रारम्भ किया जाता है तो बंधन और मुक्ति की संभावनाएँ स्पष्ट हो जाती हैं क्योंकि बन्धन और मुक्ति पर्याय अवस्था में ही संभव होती है। मोक्ष को तत्व माना गया है, लेकिन वस्तुतः मोक्ष बंधन के अभाव का ही नाम है। जैनागमों में मोक्ष तत्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया गया है भावात्मक दृष्टिकोण, दृष्टिकोण, ३. अनिर्वचनीय दृष्टिकोण |
२. अभावात्मक
मोक्ष पर भावात्मक दृष्टिकोण से विचारः -- जैन दार्शनिकों ने मोक्षावस्था पर भावानात्मक दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसे निर्बाध अवस्था कहा है।" मोक्ष में समस्त बाधाओं के अभाव के कारण आत्मा के निजगुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं। मोक्ष, बाधक तत्वों की अनुपस्थिति और पूर्णता का प्रकटन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष की भावात्मक दशा का चित्रण करते हुए उसे शुद्ध, अनन्त चतुष्टययुक्त, अक्षय, अविनाशी, निर्बाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, नित्य, अविचल, अनालम्ब कहा है।" आचार्य उसी ग्रंथ में आगे चलकर मोक्ष में निम्न बातों की विद्यमानता की सूचना करते हैं। १. पूर्णज्ञान, २. पूर्णदर्शन ३. पूर्णसौख्य, ४. पूर्णवीर्य, ५. अमूर्तत्व, ६. अस्तित्व और ७. सप्रदेशता । आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष दशा के जिन सात भावात्मक तथ्यों का उल्लेख किया है, वे सभी भारतीय दर्शनों को स्वीकार नहीं हैं । वेदान्त को स्वीकार नहीं ५. अव्वाबाहं अवत्थाणं-: व्यावाधावजितभवस्थानम् - अवस्थितिः जीवस्यासौ मोक्ष इति । - अभिधान राजेन्द्र खंड ६, पृष्ठ ४३१ ६. नियमसार १७६-१७७
७. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलविरियं । केवलदिठि अमुत्तं अत्थितं सप्पदेसत्तं । नियमसार १८१
४५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org