Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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भी आवश्यकता नहीं पड़ती। यही बात कर्म-फल भोगने के विषय में भी समझ लेनी चाहिये । इस संबन्ध में बौद्ध-साहित्य में भी बहुत कुछ कहा गया है। मिलिन्द और नागसेन
राजा मिलिन्द स्थविर नागसेन से पूछता है कि-भन्ते ! क्या । कारण है कि सभी मनुष्य समान नहीं होते हैं । कोई कम आयुवाला, कोई दीर्घ आयु वाला, कोई बहुत रोगी, कोई नीरोग, कोई भद्दा, कोई बड़ा सुन्दर, कोई प्रभावहीन, कोई प्रभावशाली, कोई निर्धन, कोई धनी, कोई नीच कुल वाला, कोई मूर्ख और कोई विद्वान क्यों होते हैं ? उक्त प्रश्नों का उत्तर स्थविर नागसेन ने इस प्रकार दिया है-राजन् ! क्या कारण है कि सभी वनस्पति एक जैसी नहीं होती कोई खट्टी, कोई नमकीन, कोई तीखी कोई कड़वी, कोई कसेली और कोई मीठी क्यों होती हैं ? मिलिन्द ने कहा-मैं समझता हूँ कि बीजों के भिन्न-भिन्न होने से ही वनस्पति भी भिन्न-भिन्न होती हैं। नागसेन ने कहा-राजन् ! जीवों की विविधता का कारण भी उनका अपना कर्म ही होता है। सभी जीव अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं। सभी जीव अपने कर्मों के अनुसार ही नाना गति और योनियों में उप्पन्न होते हैं। राजा मिलिन्द और नागसेन के इस संवाद से भी यही सिद्ध होता है कि कर्म अपना फल स्वयं ही प्रदान करता है। "मिलिन्द-प्रश्न" एक बौद्धग्रन्थ है। उसमें यह संवाद दिया गया है ।
चेतन का संबन्ध पाकर कर्म स्वयं ही अपना फल देता है और आत्मा उसका फल भोगता है । जैन-दर्शन का यह सिद्धान्त बौद्ध-दर्शन में भी स्वीकार किया गया है, जिसका स्पष्ट उल्लेख हमें राजा मिलिन्द और स्थविर नागसेन के संवाद में उपलब्ध होता है । जैन दर्शन के अनुसार किसी भी कर्म के फल भोग के लिए कर्म और उसके करने वाले के अतिरिक्त किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि कर्म करते समय ही जीव के परिणाम के अनुसार इस प्रकार का संस्कार पड़ जाता है, जिससे प्रेरित होकर जीव अपने कर्म का फल स्वयं भोग लेता है और कर्म भी चेतन से संबद्ध होकर अपने फल को अपने आप ही प्रकट कर देता है। कुछ दार्शनिक यह भी मानते हैं कि-काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ इन पांच समवायों के मिलने से जीव कर्म-फल भोगता है। इन सब तर्कों से सिद्ध हो जाता है कि जीव के संयोग से कर्म अपना फल स्वतः ही देता है। शुभ और अशुभ कर्म
जैन दर्शन के अनुसार कर्म वर्गणा के परमाणु लोक में सर्वत्र भरे हैं। उनमें शुभत्व और अशुभत्व का भेद नहीं है, फिर कर्म पुद्गल परमाणुओं में शुभत्व अशुभत्व का भेद कैसे पैदा हो जाता है ? इसका उत्तर यह है कि-जीव अपने शुभ और अशुभ परिमाणों के अनुसार कर्म वर्गणा के दलिकों को शुभ और अशुभ रूप में परिणित करता हुवा ही ग्रहण करता है । इस प्रकार जीव के परिणाम एवं विचार ही, कर्मों की शुभता एवं अशुभता के कारण हैं । इसका अर्थ यह है कि-कर्म पुद्गल स्वयं अपने आप में शुभ
और अशुभ नहीं होता बल्कि जीव का परिणाम ही उसे शुभ और अशुभ बनाता है। दूसरा कारण है, आश्रय का स्वभाव । कर्म के आश्रयभूत संसारी जीव का भी यह वैभाविक स्वभाव है कि वह कर्मों को शुभ एवं अशुभ रूप में परिणित करके ही ग्रहण करता है। इसी कारण कर्मों में भी कुछ ऐसी योग्यता रहती है कि वे शभ एवं अशभ परिणाम सहित जीव से ग्रहण किए जाकर ही, शुभ एवं अशुभ रूप में परिणित होते रहते हैं, बदलते रहते हैं एवं परिवर्तित होते रहते हैं। पुद्गल शुभ से अशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप में कैसे परिणत हो जाते हैं ? इसका समाधान इस प्रकार से किया गया है:
प्रकृति, स्थिति, और अनुभाग की विचित्रता तथा प्रदेशों के अल्पबहुत्व का भी भेद जीव कर्म ग्रहण के समय ही करता है। इस तथ्य को समझने के लिये आहार का दृष्टान्त दिया जाता है । सर्प
और गाय को भले ही एक जैसा भोजन एवं आहार दिया जावे, किन्तु उन दोनों की परिणति विभिन्न प्रकार की होती है। कल्पना कीजिए सर्प और गाय को एक साथ और एक जैसा दूध पीने के लिये दिया गया, वह दूध सर्प के शरीर में विष रूप में परिणित होता है और गाय के शरीर में दूध, दूध रूप में परिणित होता है। ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है किआहार का यह स्वभाव है कि वह अपने आश्रय के अनुसार परिणत होता रहता है । एक ही समय में पड़ी वर्षा की बूदों का आश्रय भेद से भिन्न-भिन्न परिणाम देखा जाता है। जैसे कि स्वाति नक्षत्र में गिरी बंदें सीप के मुख में जाकर मोती बन जाती है और सर्प के मख में विष। यह तो भिन्न-भिन्न शरीरों में आहार की विचित्रता दिखलाई किन्तु एक शरीर द्वारा ग्रहण किया हुवा एक आहार अस्थि, मजजा, एवं मलमूत्र आदि सार-असार विविध रूपों में परिणित हो जाता है। इसी प्रकार कर्म भी जीव से ग्रहण किए जाने पर शुभ एवं अशुभ रूप में परिणित हो जाते हैं। एक ही पुद्गल वर्गणा में विभिन्नता का हो जाना सिद्धान्स बाधित नहीं कहा जा सकता है। जीव का कर्म से अनादि सम्बन्ध
प्रश्न होता है, आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है । इस चेतन आत्मा का इस जड़ कर्म के साथ संबंध कब से है ? इसके समाधान में कहा गया है कि-कर्म संतति का आत्मा के साथ अनादि काल से संबंध है, यह नहीं बता सकते हैं, कि जीव से कर्म का सम्बन्ध सर्वप्रथम कब और कैसे हुवा । शास्त्र में यह कहा गया है, कि जीव सदा क्रियाशील रहता है। वह प्रतिक्षण मन, वचन और काय से योग रूप व्यापार में प्रवृत्त रहता है । अतः वह प्रति समय कर्म बंध करता ही रहता है । इस प्रकार अमुक कर्म विशेष दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का संबंध सादि भी कहा जा सकता है। परन्तु कर्म संतति की अपेक्षा से जीव के साथ कर्म का अनादि काल से संबंध है। प्रशिक्षण पुराने कर्म क्षय होते रहते हैं और नये कर्म बंधते रहते हैं ।
यदि कर्म संतति को सादि मान लिया जाय तो फिर कर्म संबंध से पूर्व जीव सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त दशा में रहा होगा। फिर वह कर्म से लिप्त कैसे हो गया ? यदि अपने शुद्ध स्वरूप में
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