Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी
शताब्दियों से मालव की भूमि अनेक प्रकार के प्राकृतिक वैभव से समृद्ध रही है। इसके पावन अंचल से ऐसी अनेक विभूतियां आविर्भूत हुई है जो धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय क्षेत्र में भी प्रभावक सिद्ध हुई हैं। इस भूमि का महत्व इस दृष्टि से भी है कि इसने भारत का बक्षस्थल मध्य स्थान प्राप्त किया है। करीब सौ साल पूर्व की वह घड़ी अनुपम थी जबकि इस प्रदेश का प्रसिद्ध नगर भोपाल धन्य हो गया। उस समय अनेक जाति एवं वर्ण के लोगों ने यहां आबादी बढ़ाई थी और सभी अपने-अपने व्यवसायों में व्यस्त थे ।
शान्तिलाल दुग्गड
फूलमाली श्री गंगारामजी भी भोपाल के ही निवासी थे उनके कुल में एक ऐसा कुलदीपक प्रज्वलित हुआ जिसने अपने रत्नत्रय से जैन समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया। सौभाग्यवती मथुरादेवी उस दिन धन्य हो गई जब उनकी कोख से बलदेव ने जन्म धारण किया था। वह दिन था वि. सं. १९४० का वैशाख शुक्ला ३ अर्थात् अक्षय तृतीया का । इसी दिन बलदेव का जन्म हुआ था । बलदेव के जन्म से सारे परिवार में आनन्द छा गया, लगता था, बलदेव देवीबल अपने साथ लेकर अवतरित हुए 1
बलदेव दिन दूने रात चौगुने बढ़ते गये । उनका भाग्य भी धीरे-धीरे प्रकट होने लगा। बलदेव ने शैशवावस्था पूर्ण कर किशोरावस्था में प्रवेश किया और उनकी भाग्य स्थिति ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया । जीव स्वीकृत कर्म के उदय को भोगता है। और वही कर्मोदय की स्थिति व्यक्ति को अपने इष्ट की ओर प्रेरित करती है । जैसे जैसे बलदेव सांसारिक विषयों से परिचित होते गये वैसे उन्हें संसार की क्षणिकता और असारता का अनुभव होता गया ।
भाग्योदय से उन्हें पूज्य गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्रीमद् धनविजयजी महाराज की संगति प्राप्त हुई और उनकी वैराग्य भावना विशेष दृढ़ हुई। गुरुदेव श्री की आज्ञा प्राप्त करने के बाद वि. सं. १९५४ मार्गशीर्ष शुक्ला ८ को भीनमाल में बड़े भारी महोत्सव के साथ मुनिश्री धनविजयजी महाराज ने उन्हें भगवती दीक्षा प्रदान की और उन्हें मुनि गुलावविजयजी के नाम से सम्बोधित किया।
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मुनि श्री गुलाबविजयजी ने गुरु सेवा में रह कर अध्ययन, मनन एवं चितन में बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की। उन्होंने साध्वा
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चार की उत्कृष्ठता का अनुभव किया और जीवन में तदनुरूप आचरण भी किया। दीक्षा के तीन साल बाद यानी वि. सं. १९५७
पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने आपको बड़ी दीक्षा प्रदान की। पूज्य गुरुदेव के सहवास में रह कर आपने अपनी योग्यता को विशेष रूप से बढ़ाया एवं संस्कृत, प्राकृत और ज्योतिष में निपुणता प्राप्त की।
उन्होंने गांव-गांव घूम कर जन समाज को अपने उपदेश से जागृत 'किया। सामाजिक कुप्रथाओं का अन्त करना आपका प्रमुख ध्येय था । इसलिये आपने जगह-जगह जाकर उपदेश दिये और समाज में सुधार किया । पूज्य मुनिश्री बड़े प्रतिभावान और उत्कृष्ट क्रियापालक साधु थे ।
मुनि श्री धीरविजयजी आपके शिष्य थे । अजित शांति स्तवन की गाथा रटते रटते उनका देहावसान हुआ था।
मुनिश्री गुलाबविजयजी ने ज्योतिष शास्त्र का गहन अध्ययन करके एक ज्योतिष विषयक ग्रंथ भी निर्माण किया था। राजेन्द्र गुण मंजरी नामक संस्कृत काव्य ग्रंथ का भी आपने निर्माण किया था। जिसमें पू. गुरुदेव का जीवन अनेक सुभाषितों के साथ लिखा गया है। इसके अलावा आपने गुरु देव गुण स्तवनावली और देवर्षि गुण रत्नाकर नामक पुस्तक श्रीमद् धनचन्द्र सूरिकृत भी संपादित कर प्रकाशित करवाई थी।
आप अपनी विशिष्ट ज्ञान शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। इसी कारण सं. १९९५ में आहोर ( राजस्थान) में परम पूज्य गुरुदेव श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब को जब आचार्य पद प्रदान किया गया था तब उसी समय आचार्य श्री ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया था।
आप सत्क्रियापात्र, कुशल व्याख्याता एवं संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान थे। आपका अंतिम चातुर्मास संवत् २००३ में भीनमाल में हुआ। उसी साल माघ शुक्ला १३ को "ओम् अर्हम्" का जाप करते हुए आप श्री स्वर्गवासी हुए । उपाध्यायजी के स्वर्गवास से संघ की ऐसी क्षति हुई है, जिसकी पूर्ति अब असंभव है। आप जीवन भर पूज्य गुरुदेव के प्रति एकनिष्ठ रहे।
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राजेन्द्र-क्योति
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