Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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पर्यायार्थिक नय में ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत का समावेश हो जाता है ।
जो नयवस्तु के धर्म का निषेध करता है वह दुर्नय है। नय प्रमाण और अप्रमाण दोनों से भिन्न है । वह तो प्रमाण का एक अंश है। जिस प्रकार समुद्र का अंश न समुद्र है और न असमुद्र है किन्तु वह समुद्रांश है ।१०।
नय वस्तु के एक धर्म तक ही सीमित रहता है । स्याद्वाद का कथन वस्तु के समग्र धर्मों का ग्रहण करता है और इसका कथन एक धर्म का ग्राहक है। अतः स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश । इसका तात्पर्य यह हवा कि सकलादेश की विविक्षा सकल धर्मों के प्रति और विकलादेश की विविक्षा विकल धर्म के प्रति है।1 अनेकान्त स्याद्वाद और सप्तभंगी
प्रत्येक पदार्थ अपने आप में अखंड है, एकरूप है और अनन्त गुण धर्मों से संयुक्त है। उसके अपने स्वतंत्र गुण और पर्याय हैं। किसी भी वस्तु का निरूपण उसके प्रतिपक्षी गुण धर्म की अपेक्षा से किया जाता है। अनेकान्त वस्तु की अनेक धर्मिता को सिद्ध करता है और स्यावाद उसकी व्याख्या करने में एक स्वर्णिम सूत्रपात करता है । सप्तभंगी व्यवस्थिति विश्लेषण प्रस्तुत करती है। सप्तभंगी की कथन शैली में एक ही वस्तु में अविरोधपूर्वक विधि और प्रति बोध तत्वों का सुन्दर निर्वाह होता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि सप्तभंगीवाद स्याद्वाद का विश्लेषण है । जिज्ञासु के अन्तर्मानस में सहज ही जिज्ञासा उद्बुद्ध हो सकती है कि सप्तभंगी क्या है और इसकी क्या उपयोगिता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि-संसार की प्रत्येक वस्तु के स्वरूप के कथन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जा सकता है
अपेक्षा के महत्व को ले कर सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक शब्द के दो वाच्य होते हैं-विधि और निषेध । प्रत्येक विधि के साथ निषेध है और प्रत्येक निषेध के साथ विधि भी है क्योंकि एकान्तरूप से न कोई विधि है और न कोई निषेध ही है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से वस्तु का विवेचन किया गया है । सात प्रकार के जो भंग बताए गये हैं उनका निरूपण इस प्रकार है
१. स्याद् अस्ति ५. स्यात् अस्ति अव्यक्तं २. स्याद् नास्ति ६. स्यात् नास्ति अव्यक्त ३. स्यादस्ति नास्ति ७. स्यात् अस्ति नास्ति अव्यक्तं ४. स्यात् अव्यक्तं
इनमें से प्रथम भंग विधेयात्मक विचार के आधार पर बना है। इसमें वस्तु के अस्तित्व का विधेयात्मक भाषा में प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय भंग निषेधात्मक विचार के आधार पर निर्मित है। इसमें वस्तु के अस्तित्व रूप का निषेधात्मक ढंग से विवेचन किया गया है । तृतीय भंग विधि और निषेध का क्रमशः विवेचन करता है। प्रस्तुत भंग प्रथम और द्वितीय के संयोग से बना है। चतुर्थ भंग विधि एवं निषेध का युगपत् प्रतिपादन करता है। दोनों का प्रतिपादन करना यह वचन की शक्ति से बाहर है इसलिए इसे अव्यक्त कहा गया है। पंचम भंग विधि और अव्यक्त दोनों का विवेचन करता है। प्रस्तुत भंग प्रथम और चतुर्थ के संयोग से निर्मित है। छठा भंग निषेध और अव्यक्त का प्रतिपादक है। यह भंग द्वितीय और चतुर्थ के संयोग से बना है। सप्तम भंग विधि निषेध और अव्यक्त का विवेचन है । यह तृतीय
और चतुर्थ भंग के संयोग से बना है। ___अभिप्राय यह है कि किसी भी वस्तु में जो अस्तित्व है वह निरपेक्ष नहीं। किन्तु उसके अपने स्वरूप की अपेक्षा से है । अपने स्वरूप की अपेक्षा से वह सत् है और परस्वरूप की अपेक्षा से असत् भी है।
इस प्रकार दार्शनिक जगत में जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद सिद्धान्त एक अनुपम योगदान है। जो सदा सर्वदा दिव्य दिवाकर की भांति विश्व साहित्याकाश में प्रदीप्तमान होता रहेगा और अपनी ज्वलंत ज्योति से जनमानस को ज्योतिर्मय करता रहेगा।
३९. स्वायि प्रेतादिदेशा दि तराशा प्रलापी पुनर्नयाभासा
-प्रमाणनय तत्वालोक ४०. ना समुद्रः समुत्दोवा समुद्रांशी यथैव हि ।
नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशो कथ्यते बुद्धैः ।। श्लोकवार्तिक ४१. स्याद्वादसकलादेशोनयोविकलसंकथा-लछीयस्यपः-३।६।६२ ४२. प्रश्नवादे कस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधि प्रतिषेध
विकल्पना सप्तभंगी-तत्वार्थराजवार्तिक ११६ टीका ४३. सप्तभिःप्रकारैः वचन विन्यासः सप्तभंगिनिः गीयते
(वर्तमान समाज और.
...पृष्ठ २७ का शेष)
को लांघना चाहता है। वर्तमान समाज का एक व्यक्ति या वस्तु का अपने गुण पर्यायों से वास्तविक अभेद हो सकता है, पर दो व्यक्तियों में वास्तविक अभेद संभव नहीं है। इस तरह जब वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनंत धर्मात्मक है तब मनुष्य सहज ही यही सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा है उसकी सहानुभूति से समीक्षा होनी चाहिए और उसका वस्तु स्थिति
मूलक समीकरण होना चाहिये । मानस समता के लिये अनेकान्त दर्शन ही एकमात्र स्थित हो सकता है। इस प्रकार अनेक त दर्शन से विचार शुद्धि हो जाती है, जब स्वभावतः वाणी से नम्रता और समन्वय की वृद्धि उत्पन्न होती है। वर्तमान समाज में अगर अनेकांत दर्शन का जीवन के व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तो वहाँ चित्त में समता, माध्यस्थभाव, निष्पक्षता का उदय होता है । 0
वी. नि. सं. २५०३
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