Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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से भी जीव भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा। अतएव अनन्त है। भाव की अपेक्षा से जीव के अनन्त ज्ञान पर्याय हैं, अनन्त दर्शन पर्याय, अनन्त चारित्र पर्याय तथा अनन्त लघु पर्याय हैं, अतः अनन्त है । सारांश यह है कि द्रव्य दृष्टि से जीव सान्त है, क्षेत्र की अपेक्षा से सान्त है, काल की दृष्टि से अनन्त है, तथा भाव की अपेक्षा से अनन्त है । तात्पर्य यह है कि जीव कथंचित सान्त है और कथंचित् अनन्त है ।
बौद्ध दर्शन ने जीव की सान्तता और अनन्तता के विषय में वही मत स्थिर किया है जो नित्यता और अनित्यता में था । तात्पर्य यह है कि सान्तता और असान्तता दोनों को अव्यावृत कोटि में रक्खा है। 21 किन्तु जैन दर्शन ने प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर अपनी दृष्टि से दिया। एकता और अनेकता
जैन दर्शन का यह मन्तव्य है कि प्रत्येक पदार्थ में एकता और अनेकता ये दोनों धर्म विद्यमान हैं । जीव द्रव्य की एकता और अनेकता का प्रतिपादन करते हुवे प्रभु महावीर ने कहा-द्रव्य दृष्टि से मैं एका हूँ और ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो हूँ । परिवर्तन न होने वाले प्रदेशों की अपेक्षा से अक्षय हूं, अव्यय हूँ अवस्थित हूँ। बदलते रहने वाले उपयोग की अपेक्षा से अनेक हूँ।
इस प्रकार पदार्थ में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का एक ही द्रव्य में परिणमन करना अनेकान्तवाद की अनोखी देन है। सत्-एक चिन्तन
सत् के स्वरूप का विवेचन करते हुवे जैन दर्शन ने कहा है कि जो द्रव्य है वह अवश्य सत् है क्योंकि सत् और द्रव्य दोनों एक हैं। जो है वह सत् है और जो असत् है, वह सत् है असत् रूप में । अत : सत्ता सामान्य की अपेक्षा से सब सत् है । सत् की परिभाषा निम्न रूप से की गई है-प्रत्येक सत अर्थात् प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है । गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। २०. जे. बि. य खंदया। जाव स अन्ते जीवे तस्स वि य णं एयमहते
एवं खलु जाव दव्यओणं एगे जीवे स अन्ते । खेत ओ णं जीवे असंखेज्जयए सिए असंखेज्ज पए सो गाडै अस्थि गुण जे अन्ते कालओ णं जीवे न कयाविन आसि जावणिच्चे नत्थि पुण से अन्ते भावओ णं जीवे अणन्ता णाण पज्जवा अणन्ता दसण पज्जवा अणंत चरित्त पज्जवा अणंता अगर लघुत्थ पज्जवा नत्थि पुण से अंते ।।
-भगवती सूत्र २।९० २१. मज्झिम निकाय चूल मालंक्यस्तुत -६३
सोमिला दव्वठ्याए एगे अहं नाण दंसणदठ्या ए दुबिहे अहं पएसटठ्याए अक्ख एवि अहं अव्वए वि अहं अवठ्ठिए वि अहं उपज ओठ्याए अणेगभूय भाव भविए वि अहं
-भगवती सूत्र १।८।१०।। २३. उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत् -तत्वार्थसूत्र ५।२९
यहाँ पर सहज ही शंका उदबुद्ध होगी कि द्रव्य और सत एक ही है, फिर इनके लक्षण भिन्न भिन्न क्यों हैं ? इसका समाधान यह है कि उत्पाद और व्यय के स्थान पर पर्याय शब्द है और ध्रौव्य के स्थान पर गुण । उत्पाद और व्यय परिवर्तन की सूचना दे रहे हैं और ध्रौव्य नित्यता का सूचक है। इसी बात को इस प्रकार कहा है कि उत्पाद और विनाश के बीच एक रूप है जो स्थिर है, वही ध्रौव्य है । यही नित्य की परिभाषा है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ के स्थायित्व में एक रूपता रहती है। वह नष्ट नहीं होता, नवीन भी नहीं होता।
जैन दर्शन सदसद कार्यवादी है । अतः वह प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व ये दो धर्म स्वीकार किये गये हैं । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु अस्ति रूप है और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से नास्ति रूप है ।28
बुद्ध ने अस्ति और नास्ति इन दोनों को नहीं स्वीकारा है। सब है, इस प्रकार कहना एक अंत है, सब नहीं है ऐसा कहना दूसरा अन्त है। इन दोनों अन्तों का परित्याग करके मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है ।
किन्तु जैन दर्शन ने अस्ति और नास्ति के संबन्ध में जो मत स्थिर किया है वह अपूर्व है और अनूठा भी। आत्मा में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों का परिणमन होता है यह जैन दर्शन का अपना मन्तव्य है। 28 अस्ति और नास्ति के संबंध में जब प्रभु महावीर से पूछा गया तब उन्होंने उत्तर दिया कि "हम अस्तिको नास्ति नहीं कहते हैं और नास्ति को अस्ति नहीं कहते हैं। जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं और नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं।"29 २४. तत्वार्थसूत्र ५।२३ २५. तदभावीव्यय -तत्वार्थसूत्र ५।३० २६. सदेव सर्व को नेच्छत स्वरूपादि चतुष्टयात् । असदेव विपर्या सान्न चैत्र व्यपतिष्ठते ।।
-आप्तमीमांसा श्लोक-१५ २७. सव्यं अत्थीति खो ब्राह्मणा अयं एको अन्तेस्वयं नत्थीति
खो ब्राह्मणा अयं दुतियो अन्तो । एते ते ब्राह्मणा उभो अन्तो अनुपगम्म मज्झेन तथागतो, धम्मदेसे निपविज्जा पचंया ।
--संयुक्तनिकाय १२।४७ ।। २८. से नूणं भंते अत्थितं अत्थिते परिणमई । नालीत्तं नत्थिते
परिणमई हंता गोयमा परिणमई ।। नत्थितं नस्थिते परिणमई, नं कि पओमसा निससा ?
गोयमा पओगसा वि तं बीअ सा वितं । जहा ते भंते अत्थितं अत्थिते परिणमई तट्टा ते नत्थितं नत्थिते परिणमई ? जहा ते नत्थिते नत्थिते परिणमई।
वहाँ वे अत्थितं अत्थिते परिणमई ? -भगवती १।३।३३ २९. नो खलु वयं देवाजुप्पिया । अत्थि भावं नत्थिति बदामो।
नत्थि भावां अत्थिति वदामो । अम्हे णं देवाजुप्पिया । सव्यं अत्थि भावं अत्थिति वदामो सव्वं नत्थि भावं । नस्थिति वदामो।
-भगवती सूत्र ७।१०।३।०४
वी. नि. सं. २५०३
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