Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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हड़बड़ी नहीं है। उनका जीवन भागता हुआ है ही नहीं। ठहरकर सोचता हुआ, शान्त, तटस्थ, चीजों को समझने के लिए प्रस्तुत होता हुआ, ग्रहण करने की भावुक उतावली भी नहीं और छूट जाने का बोझिल पश्चात्ताप भी नहीं, समय की रेत पर विश्वास के पांवों से चलता हुआ जीवन-यह चित्र उभरता है महावीर का । इसलिये महावीर के जीवन में कोई नाटकीयताकोई तमाशा नहीं है । एक मैदानी नदी की तरह शान्त बहाव है उनका । सन्यास के लिये निकलना चाहते थे। पर माता-पिता की सहमति के लिये प्रतीक्षा करते रहे। जब वे २७ वर्ष के थे उनके माता-पिता का देहान्त हो गया। अब वे सन्यास के लिए अपेक्षाकृत स्वतन्त्र हो गए। भाई से अनुमति माँगी । भाई ने अनुमति देने में संकोच दिखाया तो दो वर्ष और ठहरे रहे । तीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया । श्वेताम्बर मान्यता है कि वे विवाहित थे । दिगम्बर मान्यता है कि उन्होंने विवाह नहीं किया था। लगभग साढ़े बारह वर्ष तक वे मोन तपस्या करते रहे । रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श के सारे आकर्षणों से विरत रहते हुए वे चिन्तन में लीन बने रहे । प्रायः लोगों ने उन्हें गलत समझा और कष्ट पहुंचाये। पर वह व्यक्ति कष्टों की चिन्ता कहाँ करता है जिसके सामने सत्य अपने आपको अनावृत कर रहा हो। उनका परिश्रम सफल हुआ और उन्हें सब कुछ स्पष्ट हो गया। जैन ग्रन्थ कहते हैं--महावीर सर्वज्ञ हो गये। यह घटना ५५७ ई.पू. २६ अप्रैल, वैशाख शुक्ल दशमी को बिहार प्रान्त के ज़म्भक नामक गांव के बाहर ऋजुकूला नदी के तट पर एक शाल वृक्ष के नीचे घटित हुई। इस घटना के बाद उन्हें सर्वज्ञ, तीर्थंकर, गणनायक, अहंत परमात्मा, जिनेन्द्र आदि नामों से स्मरण किया जाने लगा। महावीर ने अपना उपदेश पण्डितों की भाषा संस्कृत में न देकर सर्वसाधारण की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत में दिया । अर्द्धमागधी प्राकृत (वर्तमान पूर्वी हिन्दी, यानी अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी की पूर्वज भाषा) के पूर्व में मागधी (वर्तमान बिहारी, बंगाली, असमी और उडिया की पूर्व भाषा) और पश्चिम में शौरसेनी प्राकृत (वर्तमान पश्चिम हिन्दी, यानी खड़ी बोली, ब्रज, बुन्देली, कन्नौजी और बांगरू की पूर्वज भाषा) का प्रदेश था । महावीर की मातृभाषा मागधी प्राकृत थी, लेकिन अर्द्धमागधी प्राकृत में उपदेश देने के कारण अर्धमागधी भाषा-भाषियों के अतिरिक्त शौरसेनी और मागधी भाषा-भाषी भी महावीर को समझ सके । क्योंकि अर्द्धमागधी मध्यवर्ती प्रदेश की भाषा थी और उसमें पश्चिमी तथा पूर्वी छोरों पर बोली जाने वाली शौरसेनी तथा मागधी की बहुत सी विशेषताएँ विद्यमान थीं। एक ओर जहाँ वह शौरसेनी से बहुत दूर नहीं थी वहीं दूसरी ओर मागधी से भी बहुत दूर नहीं थी। उनकी सभा में जिसे समवसरण कहा जाता था, सभी धर्म, विचार और उम्र के मनुष्यों को ही नहीं, पशु-पक्षियों को भी आने की छूट थी। वे निरन्तर भ्रमण करते रहे और सभी को उस सत्य से परिचित कराते रहे जिसे उन्होंने लम्बी कष्टपूर्ण मौन साधना के द्वारा प्राप्त किया था।
उनके उपदेशों को दूर-दूर तक पहुँचाने के लिए इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह प्रमुख शिष्यों के नेतृत्व में मुनियों के गणों का संगठन हुआ । महासती चन्दना उनके साध्वीसंघ की अध्यक्षा बनी । महावीर ने मुनि और गृहस्थ दोनों को मार्गदर्शन दिया। २९ वर्ष ३ माह और २४ दिन तक वे उपदेश देते रहे। अन्त में ५२७ ई. पूर्व कार्तिक कृष्ण अमावस्या मंगलवार १५ अक्टूबर को पावानगर में उनका निर्वाण हुआ।
साढ़े बारह वर्ष के मौन लेकिन जागरूक एकाग्र चिन्तन से कोन सी सर्वज्ञता मिली महावीर को? क्या वे संसार की सभी छोटी-बड़ी बातों को जान गये? महावीर की सर्वज्ञता इन सब ही चीजों में नहीं है। वास्तव में उनकी चेतना का पदार्थ (वस्तु) द्रव्य या सत् की विराटता से साक्षात्कार हो गया। उन्हें पदार्थ की स्वतन्त्रता की अनुभूति हुई । वे समझ सके कि पदार्थ स्वतन्त्र, विराट और बहुआयामी है । इस अभूतपूर्व घटना की असाधारणता एक ऐसी बात से समझी जा सकती है कि इसे समझने के लिए विज्ञान को लगभग २५०० वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ी । बीसवीं शताब्दी में आईस्टीन के माध्यम से ही वह इसे समझ सका। इसे समझने के लिए राजनीतिशास्त्र को लगभग २२३६ वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ी। फ्रान्सीसी क्रान्ति के माध्यम से ही वह इसे समझ पाया । आइंस्टीन ने इसे मूलत: केवल जड़ पदार्थों के सन्दर्भ में और फ्रान्सीसी क्रान्ति में इसे केवल' मानवी सन्दों में ही समझा । महावीर ने इसका सम्पूर्ण जड़ और चेतन के सन्दर्भ में आत्म-साक्षात्कार किया। इस आत्म-साक्षात्कार ने उन्हें दृष्टि दी जिससे वे अनेकान्त, स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह आदि सत्यों को देख सके, मानव आचरण के मानकों का निर्धारण कर सके और जीवों की मुक्ति का रास्ता पा सके ।
महावीर की सर्वज्ञता का अर्थ उनके द्वारा सब कुछ जानना नहीं है । बल्कि उसे जानना है जिसे जान लेने के बाद और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता । वस्तु के स्वरूप की जानकारी के बाद महावीर के लिए ज्ञान निःशेष हो गया। यह जड़ को सीचना है जिसे सींचने के बाद फूल-फलों या शाखाओं का सींचना आवश्यक नहीं रह जाता । महावीर इसी अर्थ में सर्वज्ञ हैं । वास्तव में वे दृष्टि-सम्पन्न हो गये । दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति सभी ओर देख सकता है । महावीर के लिए सब ओर देखना सम्भव हो गया। आधुनिक काल में सर्वज्ञता की कुछ ऐसी ही झलक हमें महात्मा गांधी में देखने को मिलती है । वे साहित्य-समीक्षक नहीं थे पर रामचरित मानस, साकेत आदि पर टिप्पणी कर गये, अर्थशास्त्री नहीं थे पर उन्होंने ग्रामोद्योग, कृषि, स्वदेशी आदि की नई दिशाओं से संसार को परिचित कराया, दार्शनिक नहीं थे पर गीता की उनकी अपनी व्याख्या है, समाजशास्त्री नहीं थे पर स्त्री-कल्याण, हरिजन-उद्धार आदि पर उन्होंने निजी योजनाएं प्रस्तुत की, शिक्षाशास्त्री नहीं थे लेकिन मातृभाषा, शिक्षा-प्रणाली आदि पर उनके विचार शिक्षाशास्त्रियों के लिए चुनौती बन गये। महावीर की सर्वज्ञता इससे अधिक तात्त्विक और इससे अधिक गहरी थी।
राजेन्द्र-ज्योति
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