Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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ही बालक के जीवन निर्माण में पहली ईंट बनती है । उसी के आधार से सारी जिन्दगी के मकान का प्रश्न जुड़ा हुआ है ।
परिणामस्वरूप भाग्यशाली देवीचन्द की दीप्ति प्रकाशमान वनती जा रही थी । विधि के विधान और व्यक्ति के विचारों का मेल बिठाना बड़ा कठिन है। यदि मनचाहा हो जाता तो मनुष्य न जाने क्या क्या कर बैठता ? मनुष्य सबको देख सकता है केवल काल को नहीं देख सकता । अपने भाग्य की समझ में न आने वाली कला को नहीं परख सकता ।
देवीचन्द की लघु वय में ही भगवान भगवान के प्यारे हो गये और सरस्वती ने भी हमेशा के लिए बिदा ले ली।
उस समय भगवान सरस्वती के इस लाल की उम्र केवल छः साल की थी। उम्र और कद की ओर क्या देखना ? उसका भाग्य ही उसकी प्रतिभा दिग्दर्शित कर रहा था ।
धर्मरंग में रंगे पारेख केसरीमलजी के साथ बालक देवीचन्द का सम्मिलन हुआ । बाप-दादा ने हीरे और रत्न परखे थे। इस पारेख ने नररत्न को परखा। मिलकर बातचीत की। पारेख को लगा कि उस बालक की अंतरात्मा संसार के प्रति उदासीनता का अनुभव कर रही है किसी सद्गुरु के शरण की अभिलाषा इस बालक के अंतर में जाग रही है।
गुरुदेव तो ज्ञानी हैं। यह बालक उनके शासन को शोभायमान कर देगा। इसे ले जाऊं और गुरुदेव के दर्शन करा लाऊं । यह सोचकर और देवीचन्द की भावना जानकर श्री केसरीमलजी उसे अपने साथ गुरुदेव के पास ले गये ।
गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । पुण्यश्लोक, पवित्र आत्मा । सच्चे साधक और सच्चे पथदर्शक ।
उनके दर्शन होते ही देवीचन्द प्रसन्न हो गया। गुमी हुई वस्तु की प्राप्ति से होने वाले आनन्द से भी अधिक आनन्द उसे इस दर्शन से प्राप्त हुआ ।
गुरु मिले और भाग्य भानु प्रकाशित हो गया ।
गुरुदेव श्री ने भाग्य रेखा और शरीराकृति देखी। परीक्षा कर ली और आगमन संबंधी पूछताछ की। बालक ने सवालों का ठीक से जवाब दिया और अपने पास रखने की प्रार्थना की।
सच्चे
भावी भावज्ञाता पूज्य गुरुदेव ने यह जान लिया कि फूल माली का यह फूल जिन शासन सौरभ फैलाये बिना नहीं रहेगा। अतः उन्होंने अपनी अनुमति दे दी।
देवीचन्द तो अभी केवल सात वर्ष के ही थे फिर भी उत्कृष्ट क्रियापालक पूज्य गुरुदेव श्री की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। भाव यद्यपि हृदय में होता है फिर भी प्रवृत्ति में उसकी झलक आये बिना नहीं रहती । केवल प्रशस्त प्रवृत्ति में ही रमने वाले इस बालक को दीक्षा प्रदान करना निश्चित हुआ ।
त्यागोत्सव मनाने का लाभ लेने का निर्णय किया अलीराजपुर के जैन संघ ने गुरुदेव से प्रार्थना की गई। संवत् १९५२ का वैशाख
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सुद ३ ( अक्षय तृतीया) का शुभ मुहूर्त निश्चित किया गया। अधिकृत घोषणा होते ही सर्वत्र आनन्द छा गया।
अष्टाहिका महोत्सव के साथ चतुर्विध संघ की साक्षी से देवीचन्द को भगवती दीक्षा प्रदान की गई। अब देवीचन्द मुनिश्री दीपविजयजी महाराज बने । बालमुनि का प्रसन्न मुखाविन्द और शांत प्रकृति सबका मनहरण कर रहे थे ।
गुरुदेवश्री के सान्निध्य में अभ्यास तो जारी ही था पर अब वह विशेष वेग से करना था इसलिये संपूर्ण प्रमाद का त्याग करके आप आत्महित कारक प्रवृत्ति में ही मग्न रहने लगे।
बालक से बालमुनि बने और अब बने विद्यार्थी मुनि। उन्होंने ज्ञानार्जन को ध्येय बनाया और गुरुदेव श्री के स्वमुख से ही साध्वाचार का ज्ञान प्राप्त किया तथा आगम सूत्रों का गहन अध्ययन किया।
लघु वय होते हुए भी स्फूर्ति विद्यापिपासा, विनय, विवेक और शांत स्वभाव आदि विशेष गुणों से महान प्रतीत होते ये मुनि सबके लिए आशास्पद और प्रेरणामूर्ति बने थे ।
युग लगभग व्यतीत हो गया। इसी दौरान संस्कृत, प्राकृत, काव्य, न्याय, अलंकार का ज्ञान प्राप्त किया तथा अन्य दार्शनिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में खूब विकास किया ।
जिनकी आप पर छत्रछाया थी और मातृपितृ हृदय का वात्सल्य जिनकी ओर से आपको मिला था ऐसे परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज संवत् १९६३ पौष सुदी ७ के दिन राजगढ़ ( मालवा ) में दिवंगत हुए।
माता-पिता के वियोग के बाद जिन्होंने आपके हृदय को शांति प्रदान की वे भी आज आपके आगे से चले गये। पुद्गल गया पर गुरुदेव की मूर्ति मुनि श्री के हृदय मंदिर में प्रतिष्ठित हो गई।
श्री संघ ने एकत्रित होकर उपाध्याय श्रीमद् धनविजयजी को आचार्य पद से अलंकृत किया। गच्छपति के आदेश का अपने हितार्थ पालन करते हुए पूज्य मुनि श्री संयम पालन में दृढ़ बनते गये ।
ज्ञान के सागर, ध्यान के आकार, शांति के अवतार मुनिश्री हर एक के हृदय में बस गये थे ।
धीर-गंभीर मुनिश्री की विद्वत्ता विकसित होती गई । काव्य और साहित्य में आपने असामान्य सिद्धि प्राप्त की। दूर स्थित व्यक्ति की काव्य रचना में कहां कौनसा दोष है यह वे केवल उच्चारण श्रवण मात्र से बता सकते थे। साहित्यिक अशुद्धियां मात्र पहली नजर में ही आप बता देते थे। इसी कारण आप पंडित मण्डल के प्रियपात्र बन गये थे ।
परिणामस्वरूप विक्रम संवत् १९७६ में विद्वत्समाज ने मुनिधी को साहित्य विशारद, विद्याभूषण जैसी विशेष पदवियों से अलंकृत किया ।
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राजेन्द्र ज्योति
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