Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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क. सू. बा. टी. चित्र ६७
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'त्राहि त्राहि बोलते अबोध जीव थे जहाँ. नेमिराज आज आप प्राणदान दीजिये।
-श्री शिवानन्दन काव्य ; विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी; सर्ग ६; वृ. २४ अन्यत्र छापा जा रहा है, इसके मौलिक और भाषान्तरित रूपों की
टीका की एक विशेषता उसके रेखाचित्र हैं जो विविध कथाजानकारी दी गयी है। श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छ के श्रावकों को इस प्रसंगों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कतिपय चित्र प्रस्तुत लेख के प्रति का पता लगाना चाहिये और उसे व्यवस्थित सम्पादन और साथ पुनर्मुद्रित हैं। इन्हें भ्रमवश जैन चित्रकला का प्रतिनिधि नहीं पाठालोचन के बाद प्रकाश में लाना चाहिये । इससे उस समय के मान लिया जाए। वस्तुतः १९ वीं सदी के उत्तरार्ध में मद्रणकला भाषारूप पर तो प्रकाश पड़ेगा ही साथ में श्रीमद् के भाषाधिकार के समन्वय से भारतीय चित्रकला का जो रिश्ता बना था, उसका को लेकर भी एक नये अध्याय की विवृत्ति होगा।
ही एक उन्मेष यह था। वहीं प्रतिबिम्ब यहां तलाशना चाहिये। टीका में कई अन्य विषयों के साथ ४ तीर्थंकरों के सम्पूर्ण
इनके माध्यम से भगवान महावीर या तीर्थंकर ऋषभदेव की समजीवनवृत्त भी दिये गये हैं; ये हैं--भगवान महावीर, भगवान
कालीन संस्कृति की अभिव्यक्ति का सहज ही कोई प्रश्न नहीं है। पार्श्वनाथ, नेमीश्वर तथा तीर्थंकर ऋषभनाथ। इनके पूर्वभवों,
शा. भीमसिह माणक ने स्वयं अपनी कई भूलों को प्रस्तावना में पंचकल्याणकों तथा अन्य जीवन-प्रसंगों का बड़ा जीवन्त वर्णन
माना है; इसलिए ग्रन्थ में सामान्यत: जो भी आयोजन है वह हुआ है। स्थान-स्थान पर लोकाचार का चित्रण भी है। अन्त में
सौंदर्यवृद्धि की दृष्टि से हो है; क्योंकि मध्ययुग में जैन चित्रकला
का इतना विकास हो चुका था कि उसकी तुलना में ये चित्र कहीं स्थविरावली इत्यादि भी हैं।
नहीं ठहरते । तथापि कई चित्र अच्छे हैं आर इसी दृष्टि से इन्हें टीका के आरम्भिक पृष्ठों में श्रीमद् ने अपने आकिंचन्य को
यहाँ पुनः मुद्रित किया गया है। प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है : “हुँ मंदमति, मूर्ख, अज्ञानी, महाजड़ छतां पण श्रीसंघनी समक्ष दक्ष थइने आ कल्पसूत्रनी व्याख्या
___ इस टीका की एक अन्य विशेषता यह है कि यह गुजरातो भाषा करवान साहस करुं छु। व्याख्यान करवाने उजमाल थयो छु ।
में प्रकाशित है, किन्तु नागरी लिपि में मुद्रित है। जिस काम को ते सर्व श्रीसद्गुरुमनो प्रसाद अने चतुर्विध श्रीसंघनु सानिध्यपणुं
सन्त विनोबा भावे आज करना चाहते हैं; वह काम आज से करीब जाणवं जेम अन्य शासनमां कहेलु छ के श्रीरामचन्द्रजी सेनाना ९२ वर्ष पूर्व कल्पसूत्र की इस बालावबोध टीका के द्वारा शुरू हो गया वांदराय महोटा-महोटा पाषाण लइने समुद्रमा राख्या ते पथरा था। सम्पूर्ण टीका न.गरी लिपि में छपी हुई है। इससे इसकी पहुँच पोते पण तऱ्या अने लोकोने पण तऱ्या ते काइ पाषाण नो तथा तो बढ़ ही गयी है साथ ही साथ उस समय के कुछ वर्षों का क्या समुद्रनो अने वांदराऊनो प्रताप जाणवो नहीं परंतु ते प्रताप श्रीराम- मद्रण-आकार था इसकी जानकारी भी हमें मिलती है। इ, भ, उ, चन्द्रजीनो जाणवो केमके पत्थरनो तो एवो स्वभाव छ जे पोतें द, द्र, ल, छ, क्ष इत्यादि के आकार दृष्टव्य हैं। अब इनमें काफी पण बूडे अने आश्रय लेनारने पण बूडाडे तेम हुं पण पत्थर सदृश अन्तर आ गया है। इस तरह यह टीका न केवल धार्मिक महत्त्व छता श्री कल्पसूत्रनी व्याख्या करूं छु तेमा माहारो कांइ पण गुण रखती है वरन् भाषा, लिपि और साहित्य ; चिन्तन और सद्विचार जाणवो नहीं।"--(क. सू. बा. टी., पृष्ठ १)। इस तरह अत्यन्त की दृष्टि से राष्ट्रीय महत्त्व की भी है। हमें विश्वास है 'कल्पसूत्र' विनयभाव से श्रीमद् ने इसका लेखन आरम्भ किया और जैन समाज की मूल पाण्डुलिपि के सम्बन्ध में पुनः छानबीन आरम्भ होगी और को नवधर्मशिक्षा के क्षितिज पर ला खड़ा किया।
उसे प्राप्त किया जा सकेगा।
वी. नि. सं. २५०३
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