Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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श्रीमद् गुरुदेव और पाँच तीर्थ
यहां संक्षेप में उन पांच तीर्थों की महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय जानकारी प्रस्तुत है, जिनका श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने जीर्णोद्धार किया, प्राण-प्रतिष्ठा की और जिन्हें सर्वांगीण विकास की दिशा प्रदान की। १. कोरटा तीर्थ
कोरंटनगर, कनकापुर, कोरंटपुर, कणयापूर और कोरंटी आदि नामों से इस तीर्थ का प्राचीन जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है। यह राजस्थान में अहमदाबाद-दिल्ली रेल्वे लाइन पर स्थित जवाई बांध स्टेशन से बारह मील दूर है। यहां चार जिन मन्दिर हैं, जिनकी व्यवस्था श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की प्रेरणा से स्थापित श्री जैन पेढ़ी करती है--
(१) श्री महावीर मन्दिर : कोरटा के दक्षिण में स्थित यह मन्दिर प्राचीन सादी शिल्पकला का नमूना है। इसका पुनरुद्धार श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की प्रेरणा से किया गया, जिन्होंने महावीर भगवान की नूतन प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया।
(२) श्री आदिनाथ मन्दिर : यह मन्दिर सन्निकटस्थ धोलागिरि की ढालू जमीन पर स्थित है। इसमें मूलनायकजी की प्रतिमा के दोनों . ओर विराजित प्रतिमाएँ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठित नूतन बिम्ब हैं।
(३) श्री पार्श्वनाथ मन्दिर : यह जिनालय गांव के मध्य में है। इसमें श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है, जिनकी प्राणप्रतिष्ठा श्रीमद् राजेन्द्र सूरि ने की।
(४) श्री केशरियानाथ का मन्दिर : प्राचीन श्रीवीर मन्दिर के कोट के निर्माण कार्य के समय वि. सं. १९११ में जमीन के एक टेकरे को तोड़ते समय श्वेत वर्ण की पांच फीट विशालकाय श्री आदिनाथ भगवान की पद्मासनस्थ और इतनी ही बड़ी श्री सम्भवनाथ तथा श्री शान्तिनाथ की कार्योत्सर्ग मनोहर एवं सर्वांग
सुन्दर अखण्डित दो प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं। इन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठांजन शलाका सं. ११४३ में हुई थी। कोरटा के थी संघ ने श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की प्रेरणा से यह विशालकाय भव्य और मनोहर मन्दिर बनवाया है। प्रतिष्ठा-महोत्सव सं. १९५९ की वैशाख शु. ३० को श्रीमद् राजेन्द्रसूरि के कर-कमलों से सम्पन्न हुआ। २. भांडवा तीर्थ
भाण्डवपुर नामक यह ग्राम जोधपुर से भीलड़ी जाने वाली रेल्वे के मोदरा स्टेशन से २२ मील दूर उत्तर-पश्चिम में चारों ओर रेगिस्तान से घिरा हुआ है । वि. सं. ७ वीं शताब्दी में बेसाला कस्बे में एक विशाल सौधशिखरी जिनालय था । नगर पर मेमन डाकुओं के नियमित हमले से लोग अन्यत्र जा बसे । डाकुओं ने मन्दिर तोड़ डाला, लेकिन प्रतिमा को किसी प्रकार बचा लिया गया । जन-श्रुति के अनुसार कोतमा के निवासी पालजी प्रतिमाजी को एक शकट में विराजमान कर ले जा रहे थे कि शकट भांडवा में जहां वर्तमान में चैत्य है, आकर रुक गया। अनेकविध प्रयत्न करने पर भी जब गाड़ी नहीं चली तो सब निराश हो गये। रात्रि में अर्द्ध जागृतावस्था में पालजी की स्वप्न आया कि प्रतिमा को इसी स्थान पर चैत्य बनवाकर उसमें विराजमान कर दो। स्वप्नानुसार पालजी संघवी ने सं. १२३३ में यह मन्दिर निर्माण कर प्रतिमा महोत्सवपूर्वक विराजमान कर दी। ___ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि जब आहोर से संवत् १९५५ में इधर पधारे, तो समीपवर्ती ग्रामों के निवासी श्रीसंघ ने उक्त प्रतिमा को यहां से उठाकर अन्यत्र विराजमान करने की प्रार्थना की; लेकिन श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने प्रतिमा को यहां से नहीं उठाने और इसी चैत्य को विधिपूर्वक पुनरुद्धार कार्य सम्पन्न करने को कहा । उन्होंने सारी पट्टी में भ्रमण कर जीर्णोद्धार की प्रेरणा दी । फलस्वरूप विलम्ब से इसकी प्रतिष्ठा का महा-महोत्सव सं. २०१० में सम्पन्न
वी. नि. सं. २५०३
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