Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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कविवर प्रमोदरुचि और उनका ऐतिहासिक 'विनतिपत्र'
इन्द्रमल भगवानजी
सम्यक्त्व और सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए श्रीमद्राजेन्द्रसूरीश्वर ने जो कदम उठाये थे, कविवर का मन उन पर मुग्ध था। परम्परा से मिली धार्मिक विकृतियों और कुरीतियों, मिथ्यात्व और पाखण्ड के निरसन में उन्होंने आत्मनिरीक्षण करते हुए परिशद्धि का जो शंखनाद किया था, कविवर प्रमोदरुचिजी ने उसे प्रत्यक्ष देखा था। कवि का मन क्रांति की इस अपूर्व चेतना से पुलकित था। उन्हें लगा था जैसे हठाग्रह, पाखण्ड, पोंगापन्थ और अन्धे ढकोसलों का जमाना लद गया है और श्रीमद् के रूप में धर्म का एक नवसूर्योदय हुआ है।
कविवर प्रमोदरुचि भींडर (मेवाड़, राजस्थान) के विख्यात उपाश्रयाधीश यतिवर्य श्री अमररुचि से १८८६ ई. में दीक्षित हुए थे । इस परम्परा के अन्तर्गत मेवाड़-वर्तुल के अनेक उपाश्रय विशाल ग्रन्थागारों से संयुक्त थे। उपाश्रयाधीशों की इस पीढ़ी में कई मेधावी विद्वान् हुए, जिन्होंने स्वयं तो विपुल साहित्य-रचना की ही अन्य अनेक विद्वानों और लिपिकों (लेहियाओं) को भी आश्रय दिया। उनकी इस सत्प्रवृत्ति का सुफल यह हुआ कि कई मौलिक ग्रन्थ लिखे गये और लेहियाओं द्वारा उपाश्रयों से जुड़े ग्रन्थागार व्यवस्थित रूप में समृद्ध हुए। श्रीपूज्यों की परिष्कृत रुचियों के कारण ये ग्रन्थागार व्यवस्थित हुए और इन्होंने विद्वानों की एक अटूट पीढ़ी की रक्षा की । वैसे अधिकांश यति खुद अच्छे लेखक होते थे और समय-समय पर विविध विषयों पर अपनी लेखनी उठाते थे, किन्तु साथ ही वे अपने निकटवर्ती क्षेत्र के विद्वानों को भी साहित्य-सृजन के लिए प्रेरित करते थे। वे लेखन-सम्बन्धी उपकरणों की निर्माण विधियों, ग्रन्थों के संरक्षण, उनके अलंकरण, उनके आकल्पन तथा उनकी कलात्मक सज्जा-रचना में निष्णात होते थे, यही कारण है कि उन्नीसवीं शताब्दी तक लेखन और चित्रकलाएं परस्पर एक-दूसरे की पूरक विद्याएँ रहीं और एक-दूसरे को समृद्ध करती रहीं। १९वीं सदी में, जबकि सारा मुल्क राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक
उथल-पुथल का शिकार था, लेखन और चित्रकला के मर्मज्ञ यतियों ने हस्तलिखित ग्रन्थों की परम्परा का संरक्षण किया और उसे अटूट बनाए रखने के प्रयत्न किये; किन्तु देश में मुद्रण के सूत्रपात के साथ ही इस कला का ह्रास होने लगा और चित्रकला से संयुक्त लेखनकला मात्र इतिहास में उल्लेख की वस्तु रह गयी।
श्री प्रमोदरुचि अच्छे कवि तो थे ही, एक मर्मी संगीतज्ञ, अप्रमत्त लेखक और कुशल ग्रन्थागार-संरक्षक भी थे। उनके समय में भींडर का शास्त्र-भण्डार अपने ग्रन्थ-वैभव के कारण सुप्रसिद्ध था । घाणेराव (मारवाड़) के चातुर्मास में, जिसने यति-संस्था को जड़मूल से ही बदल डाला, आप भी श्रीमद्राजेन्द्रसूरि के साथ थे। उन्हें श्रीमद् की सम्यक्त्व-चिन्तना और समाजोद्धार के भावी संकल्पों में यतिसंस्था एवं थावक-वर्ग के कल्याण का उन्मेष स्पष्ट दिखायी दे रहा था । उन्होंने श्रीमद् में एक विलक्षण सांस्कृतिक नेतृत्व को अंगड़ाई लेते अनुभव किया था। श्रीपूज्य ने इत्र की घटना को लेकर जब श्रीमद् की अवमानना की और उन्हें चेतावनी दी, तब कविवर भी राजेन्द्रसूरिजी के साथ उस कंटीली डगर पर चल पड़े जो उस समय अनिश्चित थी और जिस पर चलने में कई सांस्कृतिक खतरे स्पष्ट थे। श्रीपूज्य के आश्रय में उपलब्ध यतिसुलभ सुखोपभोगों को तिलांजलि देकर प्रमोदरुचिजी ने जिस साहस का परिचय दिया, वह ऐतिहासिक था और उसने श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी की योजनाओं को एक संकीर्ण डगर से निकालकर एक निष्कण्टक राजमार्ग पर लाने में बहुत बड़ी सहायता की । अन्य शब्दों में प्रमोदरुचिजी राजेन्द्रसूरिजी के दाहिने हाथ थे। श्रीमद् के साथ कविवर ने भी सन् १८७३ में जावरा में क्रियोद्धार के अवसर पर दीक्षोपसंपद ग्रहण की। कविवर का व्यक्तित्व विलक्षण था; वे सद्गुणग्राही, नीर-क्षीर-विवेकी और पण्डितजीवन के आकांक्षी थे। श्रीमद् के प्रति उनके हृदय में अपरिसीम श्रद्धा-भक्ति थी, जिसका परिचय "विनतिपत्र" से सहज ही मिलता है। श्रीमद् को सम्बोधित प्रस्तुत 'विनतिपत्र' कविवर ने अपने
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राजेन्द्र-ज्योति
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