Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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और राज्याश्रयी कवियों की भाँति डिंगल आदि प्राचीन भाषाओं का गहरा ज्ञान था ।
डिंगल भाषा के ओजस्वी प्रयोग का एक उदाहरण श्रीमद् के साहस वर्णन में मिलता है। कविवर ने "कमलछंद" के माध्यम से वह "हिम्मत वर्णन किया है
'अच्छन अकच्छ, समरत्थ गणनत्थ 1 पतत्थ न समत्थ, दसमच्छ सुत मच्छरन ॥ सघन नद्दहनन नद्द अनहद्द, बल सद्दल विरद्द | अनवद्द जस गगन मद्दलन नद्दन मरद्दन ॥ गरद्द कर रद्द दर हद्द दलबद्दल मरुदलन । ध्यान समरत्थ जनऋच्छ जन अच्छ । मनदच्छ जयलच्छ गणनाथ जयसूरिगन || इसी प्रवाह में श्रीमद की वाणी महिमा 'अमृतच्छन्द में वर्णित
है
" आई आद्य अरिहन्त के प्रगटी वदन सुवट्ट । वाणीविरचित विश्व में, गणधर ज्ञानी विघट्ट || रानी विष अच्छविछट्ट, सुसविठट्ट, मिले सिसट्ट निक्षेप निपट नपति नवट्ट, चनक्कय चट्ट न्यायनिघट्ट, पड़े सह पट्ट, जहागिरजनवतत सुभट्ट, मिच्छा करे डट्ट, थकिधरवट्टचलावइ अट्ट, राजेन्द्र सुझट्ट, सूरिराज सुबट्ट । आई आद्य अरिहन्त के प्रगटी वदन सुवट्ट ।
गुरुदेव की प्रभावक वाणी का निदर्शन उक्त डिंगल- मिश्रित पद्य में कविवर प्रमोदरुचि ने विलक्षण रूप में किया है, जो आपके भाषा-भाव- वैभव और शब्द ऐश्वर्य का सन्तुलित प्रतिनिधित्व करता है ।
श्रीमद के प्रत्येक धर्म-व्यापार के प्रति कविवर में अपार श्रद्धा थी। वे श्रीमद् के पुनीत चरणों में स्वयं को समर्पित कर पूर्ण आश्वस्त थे । ऐसे आदर्श मुनि जीवन में अपना कालयापन देख वे विपुल धन्यता का अनुभव करते थे। सम्यक्त्व और सांस्कृतिक युगान्तर के लिए श्रीमद् ने जो कदम उठाए थे, कविवर का मन उन पर मुग्ध था। परम्परा से मिली धार्मिक विकृतियों और कुप्रथाओं, मिथ्यात्व और पाखण्ड के निरसन में श्रीमद् ने आत्म निरीक्षण करते हुए परिशुद्धि का जो शंखनाद किया था, प्रमोदचिजी ने उसे प्रत्यक्ष देखा था । कवि का मन क्रान्ति की इस चेतना से पुलकित था । उन्हें लगा था जैसे हठाग्रह, पाखण्ड, पोंगापन्थ और अन्धे ढकोसलों का जमाना बीत गया है और श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर के रूप में धर्म का एक नवसूर्योदय हुआ है। समाज सुधार के अभियान में श्रीमद् ने अपूर्व शूरता का परिचय दिया-
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'ममता' नहिं को गच्छ की सुविहित सो हम साधु । पंचांगी भाषी भली, लहे मग लीन अगाधु || लहे मग लीन अगाधु, पूर्व प्राचीन परक्खी। आधुनिक जे उक्त जुत, सुत्त न विसम सरक्खी ॥
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न्याय नये निरधार, खडग चौधार सुसमता । सुरि विजय राजेन्द्र यति, छोड़ी सहु ममता ॥
गड़बड़ता गहरी हुई, अवसरपणि पणकाल । भांति-भांति के भेद में, खातपात प्रतिचाल ॥ खातपात प्रतिचाल टाल मुनिमारग सोध्यो । उज्जड घाटकुवाट फैलफैलन को रोध्यो ।
वादी मंद झरी आप, तेज लखि भागे पड़पड़ । सूरि विजय राजेन्द्र, छुड़ा दीनी सब गड़बड़
समाजोत्थान के महान संघर्ष में जातिवाद और गच्छवाद की दीवारें श्रीमद् की क्रांति का अवरोध नहीं कर सकीं। जिस अपूर्व बल और संकल्प से श्रीमद ने सामाजिक और चारित्रिक कांति के इस काम को उठाया था, वह निरन्तर सफल होता गया। श्री चूलगिरि तीर्थ के वर्षों तक चले विवाद के संदर्भ में श्रीमद् के लिखित वक्तव्य ने उसे जैनों को उपलब्ध कराया था। जालोर दुर्ग स्थित प्राचीन जैन मंदिरों को राठोरी शासन से मुक्त कर उन्हें श्रीमद् ने जैन समाज को सुपुर्द कराया। इन मंदिरों का सरकार द्वारा वर्षों से शस्त्रागारों के रूप में उपयोग हो रहा था । इस तरह अत्याचार और अन्याय से पीड़ित समाज को मुक्त कराने में श्रीमद् ने महान तत्परता व्यक्त की थी । मन्दिरों का जीर्णोद्धार श्रीमद् की क्रांति का एक महत्त्वपूर्ण अंग था ।
पर उपकारी प्राणि ने निष्कारण निरन् भवसिन्धु विच पतित को, तारक प्रवर दुणिन्दु ||
निग पूरे यति दशविधधर्म के धार वर्तमान विचरे जयो, दुर्द्धरव्रत भरी भार ॥ दुर्द्धर व्रत घरी भार, लोष्टसम कंचन पेखे । रागे वर वडभागि, विषय न विलोचन देखे ||
स्तुति निन्दा चिहुं समगिणि विहरे शमदमता दुनि । पंचम काल सुचालसूं प्रतपे रवि राजेन्द्र मुनि ॥ दरसन ते दुरितहि नसे, भक्तिन तें भवनास । वन्दन तें वांछित मिले, अवलोकित फले उपास ॥ भक्ति वशे कछु वर्ण की होनाधिक पुनरुक्ति । सिंधुजी, शाली नहि शक्ति ।।
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श्रीमद् का उत्कृष्ट साध्वाचार और मुनि-जीवन उनकी अप्रमत्त दिनचर्या जन-साधारण के लिए जैसे साक्षात् 'दशवेकालिक सूत्र ही थी । यद्यपि उच्चकोटि के शास्त्रज्ञ विद्वान् प्रायः समय-समय पर होते रहे हैं लेकिन विशुद्ध और प्रामाणिक परिभिक मर्यादम के वह सूरिगण कभी-कभी ही होते हैं। श्रीमद् के व्यक्तित्व में ज्ञान और क्रिया का मणिकांचन योग अवतरित हुआ था। इनकी कठोर मधुकरीचयों का उल्लेख कविवर ने इस प्रकार किया है 'अशनादि काज गऊचरि ही जाय, उंचनीच मज्जिम निहिवग्ग ठाय । परिमाण गेह अभिग्रह धरत, गउ मुत्ति आदि गरि फिरंत ।।
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