Book Title: Rajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Author(s): Premsinh Rathod
Publisher: Rajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
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श्रीमद् की साहित्य-साधना
बसन्तीलाल जैन
विश्वपुरुष श्रीमद् राजेन्द्रसूरि ने साहित्यिक दृष्टि से क्या किया और क्या नहीं, इसका अभी तक कोई व्यवस्थित और वस्तुपरक अध्ययन नहीं हो पाया है । इस नज़र से उनकी साहित्य साधना क्रान्तिधर्मी है कि उन्होंने जो भी लिखा वह मात्र बैयक्तिक नहीं है, उसका सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष भी है। उनके पदों में जो लोक मंगल की भावना है, उसकी सराहना किये बिना कोई रह नहीं सकता। सर्वधर्म समन्वय की एक उन्मुक्त प्राणधारा उनके इन पदों में धड़क रही है। सब धर्मों का समन्वय करते हुए सत्य और सम्यक्त्व की खोज उनकी स्पष्ट जीवनचर्या है। उदाहरणार्थ निम्नलिखित पद अवलोकनीय है--
सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे ब्रह्म एक छे लक्षण लक्षित, द्रव्य अनंत निहारा । सर्व उपाधि से वजित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ।। ईश्वर सकल उपाधि निवारी, सिद्ध अचल अविकारा । शिव शक्ति जिनवाणी संभारी, रुद्र है करम संहारा रे ।। अल्ला आतम आप ही देखो, राम आतम रमनारा। कर्म जीत जिनराज प्रकासे, नय थी सकल विचारा रे ।।
उन्होंने लगभग संपूर्ण जैन वाङमय का संप्रदायातीत पारायण किया और एक वैज्ञानिक की तरह उसे व्यवस्थित और आकलित करने के प्रयत्न किये। जहां आवश्यक हुआ उन्होंने कुछ दुर्लभ ग्रंथों का पुनर्लेखन भी करवाया। उन्होंने खुद तो जैन श्रुत का पुनर्व्यवस्थापन किया ही, अपने समकालीन श्रमणों और श्रावकों को भी इस दिशा में प्रवृत्त किया। अभिधान राजेंद्र और पाइय सहबुही उनकी दो ऐसी कृतियां हैं जिन्हें 'यावच्चंद्रदिवाकरौं' नहीं भुलाया जा सकेगा। इनके द्वारा प्राकृत, मागधी और संस्कृत भाषाओं को जो समृद्धि मिली है वह कई शताब्दियों में भी संभव नहीं थी। प्रायः सभी विद्वानों ने 'अभिधान राजेंद्र' की व्यापक
उपयोगिता को स्वीकार किया है। इसके अलावा उन्होंने कई पूजाएँ, कई स्तोत्र और कई पद लिखे हैं जिनका अन्तर्तल रससिक्त है।
श्रीमद् ने छोटे बड़े कुल मिलाकर इकसठ ग्रंथों की रचना की है। उनमें से कतिपय ग्रंथों का सामान्य परिचय नीचे दिया जा रहा है : १. श्री अभिधान राजेन्द्र कोश
शब्दकोशों की परंपरा में 'अभिधान राजेंद्र' यथार्थ में एक विशिष्ट उपलब्धि है। श्रीमद् की जीवन साधना का यह ज्वलंत उदाहरण है। जब इस कोश का पहला अक्षर लिखा गया तब वे तिरसठ वर्ष के थे। कहा जाता है कि साठ के ऊपर आदमी की सारी शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं। वह जीने को जीता है, किन्तु उसका शरीर टूट जाता है, उसकी स्फूर्ति चुक जाती है, संपूर्ण प्राणवत्ता रीत जाती है, किन्तु श्रीमद् के साथ कुछ अलग ही हुआ। ६३ का आंकड़ा उनके जीवन में शरीर और आत्मा की शक्तियों की अमोघ मैत्री का वर्ष सिद्ध हुआ। उन्होंने अपार श्रम आरंभ किया। जैन जैनेतर सभी ज्ञान स्रोतों का महामंथन आरंभ किया और ९७ स्रोतों का दोहन कर उन्हें व्यवस्थित किया। तिरसठ संख्यागत अंकों का योग नौ होता है। नौ का अंक अखंड ही है। उस अखंड योग के वर्ष में श्रीमद् द्वारा एक अखंड कृति का सृजन आरंभ हुआ जो कि श्रीमद् की विश्व कल्याण की अखंड वृत्ति का स्पष्ट परिचायक है। __ सात भागों में तथा दस हजार पांच सौ छियासठ पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोश के समान है, जिसमें जैनागमों तथा विभिन्न दार्शनिक ग्रंथों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया है। इस महान कोश का संकलन कार्य मरुधर प्रान्त स्थित सियाणा नगर में वि. सं. १९४६ की आश्विन शुक्ला दूज के दिन प्रारंभ किया गया था। यह विक्रम संवत् १९६०
बी.नि.सं. २५०३/ख-२
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