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|... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
दसवाँ अध्याय जिनपूजा विषयक विविध शंकाओं का समाधान करता है। काल सापेक्ष अनेकविध परिवर्तन प्रत्येक क्रिया में होते रहते हैं। इन परिवर्तनों के कारण अनेक प्रकार की शंकाएँ एवं भ्रान्त मान्यताएँ मन-मस्तिष्क में स्थापित हो जाती है। इस अध्याय में उन्हीं के निवारण का प्रयास किया है जैसेअधिष्ठायक देवों की स्थापना मन्दिर में कहाँ करना? परमात्मा के समक्ष गुरु को वंदन करना या नहीं? कुर्ता-पायजामा पहनकर पूजा कर सकते हैं या नहीं? मन्दिर में चढ़ाए गए बादाम आदि खरीदने में क्या दोष? आदि विभिन्न प्रश्नों का शास्त्रोक्त समाधान किया गया है।
इस कृति का अन्तिम ग्यारहवाँ अध्याय जिनपूजा विषयक विविध पक्षों की तुलना करते हुए उनका सारभूत वर्णन प्रस्तुत करता है। भिन्न-भिन्न समय में आए परिवर्तनों का सामाजिक स्तर पर क्या प्रभाव रहा एवं उनसे किस प्रकार के परिणाम उत्पन्न हुए उनका भी वर्णन प्रस्तुत अध्याय में किया गया है।
जिनपूजा सम्बन्धी इस कृति का मुख्य लक्ष्य परमात्म प्रीति के नाजुक रेशमी बंधन को मजबूत करना एवं उस सम्बन्ध को विश्वास एवं समर्पण रूपी कुंकुम और अक्षतों से सजाना है। जिनपूजा श्रमण एवं श्रावक वर्ग के आवश्यक कर्तव्यों में से एक है। श्रावक वर्ग इससे पूर्ण रूप से परिचित होते हुए निजत्व से जिनत्व, जीवत्व से शिवत्व, ममत्व से समत्व के मार्ग पर अग्रसर हो पाएं यही शुभाकांक्षा है।
इस कृति के लेखन में अल्प बुद्धि के कारण जिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ भी लिखा हो अथवा अपने अभिप्राय को सही रूप से अभिव्यक्त न कर पाने के कारण किसी को पीड़ा पहुँची हो तो उसके लिए त्रियोग पूर्वक मिच्छामि दुक्कडम् करती हूँ। इस शोध अध्ययन से विभिन्न ग्रन्थकारों द्वारा रचित पुस्तकों का विशेष आलम्बन मिला, उन सभी की मैं अन्तरमन से आभारी हूँ।