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62... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
2. पदस्थ अवस्था- केवलज्ञान होने के बाद परमात्मा ने तीर्थंकर पद को प्राप्त किया उसी अवस्था को पदस्थ अवस्था कहा गया है। इस दौरान अष्ट प्रातिहार्य युक्त परमात्मा की अरिहंत अवस्था का चिंतन किया जाता है। परिकर के ऊपरी भाग में चिह्नित अशोक वृक्ष एवं अष्टप्रातिहार्य के विभिन्न चिह्न इस अवस्था का सूचन करते हैं। इसमें परमात्मा के समवसरण आदि की कल्पना करते हुए यह विचार किया जाता है कि परमात्मा ने अरिहंत अवस्था में ही देशना देकर जगत के जीवों का कल्याण किया, चतुर्विध संघ की स्थापना की
और मोक्ष मार्ग का निरूपण किया। अत: पदस्थ अवस्था को कल्याणकारी मानकर उसका चिंतन किया जाता है। ___3. रूपातीत अवस्था- परिकर में रही हुई परमात्मा की पद्मासन अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा को देखकर परमात्मा की रूपातीत अर्थात सिद्ध अवस्था का ध्यान किया जाता है। तीर्थंकर परमात्मा स्वभाव दशा में रमण करते हुए शैलेशीकरण के द्वारा शाश्वत सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं और नियमत: परमात्मा का निर्वाण पद्मासन या खड्गासन में ही होता है। अत: जिन प्रतिमा को देखकर ही रूपातीत अवस्था का चिंतन किया जाता है।
परमात्मा ने अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को प्रकट कर लिया है, जो कि स्फटिकरत्न के समान निर्मल है एवं समस्त वैभाविक दोषों से रहित है। इसी तरह के आत्मस्वरूप को प्रकट करने की भावना इस अवस्था का चिंतन करते हए की जाती है। अवस्था त्रिक का पालन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए
. • अवस्था त्रिक का पालन करते हुए तत्सम्बन्धी भावनाओं का चिंतन अवश्य करना चाहिए।
• वर्तमान में आंगी का बढ़ता हुआ प्रचलन अवस्था त्रिक के चिंतन में बाधक है। अतः हर समय प्रतिमाजी पर आंगी चढ़ाकर नहीं रखनी चाहिए।
• जहाँ पर परिकर युक्त प्रतिमा न हो वहाँ पर भावों से ही कल्पना करते हुए इन अवस्थाओं का चिंतन करना चाहिए। 6. दिशा त्याग त्रिक
चैत्यवंदन प्रारंभ करने से पूर्व जिस दिशा में मूलनायक या आराध्य जिनप्रतिमा विराजमान हो उसके अतिरिक्त अन्य दिशाओं के निरीक्षण का त्याग