Book Title: Puja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 442
________________ 376... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता – मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... नहीं परन्तु सेठ एवं ट्रस्टियों को खुश करने के लिए कार्य करता है। कई बार देखा है कि सुबह-सुबह कर्मचारी या पुजारी बिना नहाएं-धोये रात के अशुद्ध वस्त्रों में ही प्रक्षाल-आरती-पूजा आदि की व्यवस्था करना प्रारंभ कर देते हैं तथा किसी प्रकार से जयणा का भी ध्यान नहीं रखते। प्रक्षाल हेतु नलों का पानी बिना छाने ही भर दिया जाता है। यह सब कहाँ तक उचित है? दिन भर शेष कार्यों के लिए तो पुजारी कई बार बिना पूजा के वस्त्र पहने ही मूल गभारे में प्रवेश कर लेता है अथवा बिना शुद्धि किए ही मात्र पूजा के वस्त्र पहनकर कार्य करने लग जाता है। यह सब परमात्मा की आराधना के स्थान पर आशातना में हेतुभूत बनते हैं। इसी कारण मंदिरों का प्रभाव पूर्ववत देखने में नहीं आता क्योंकि हम स्वयं ही आशातना कर-करके उसके शुद्ध परिणाम युक्त वातावरण को दूषित कर रहे हैं। अत: श्रावकों को जागृत होते हए इस विषय में कोई ठोस कदम उठाना चाहिए। प्रत्येक संघ में एक ऐसा ग्रूप तैयार होना चाहिए जो स्वयं परमात्मा की प्रक्षाल आदि क्रियाएँ उल्लासपूर्वक करें इसी के साथ मंदिर के व्यवस्थापकों को पुजारी की प्रत्येक क्रिया पर ध्यान रखते हुए उन्हें सम्यक प्रकार से क्रिया करने का निर्देश देना चाहिए। शंका- ऐसे तीर्थ स्थल जहाँ पर श्रावकों का आगमन छुट्टी या पर्व विशेष के अवसर पर ही होता है। वहाँ पर पुजारियों के भरोसे नित्य प्रक्षाल आदि क्रियाएँ होना कितना औचित्यपूर्ण है? समाधान- ऐसे अनेक तीर्थ स्थल हैं जहाँ पर जैन श्रावकों का नितांत अभाव है तथा वहाँ पर छुट्टी आदि के दिन ही बाहरी तीर्थयात्रियों का आगमन होता है। कुछ ऐसे तीर्थ स्थल भी हैं जैसे पालीताना, जैसलमेर आदि जहाँ पर अनेक यात्रियों का आगमन तो रोज होता है, किन्तु सभी मूलनायकजी या मुख्य मंदिरों की ही पूजा करते हैं। आस-पास में रही शेष सैकड़ों प्रतिमाओं की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। मूलनायकजी की प्रक्षाल के लिए सैकड़ों की लाईन लगती है वहीं उन शेष प्रतिमाओं पर पुजारी जो करे वो ठीक। किसी को वहाँ देखने की भी फरसत नहीं होती। ऐसी स्थिति में जहाँ प्रतिमाओं की अधिकता हो और पूजा करने वाले न हो वहाँ पूर्व परम्परा के अनुसार नित्य प्रक्षाल नहीं करना ज्यादा उचित है। वहाँ के व्यवस्थापकों को अधिक मूर्तियों का मोह छोड़कर वे मूर्तियाँ अन्य स्थानों पर जहाँ नए मंदिर निर्माण हो रहे हो वहाँ

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