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392... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता – मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
यदि दिगम्बर परम्परावर्ती बीसपंथी एवं तेरह पंथी उपपरम्परा की तुलना करें तो दोनों परम्पराओं के मुख्य मतभेद निम्न हैं
बीसपंथी परम्परा जहाँ पंचामृत से जिन प्रतिमा के अभिषेक को महत्त्व देती है वहीं तेरहपंथी परम्परा में गीले कपड़े से पोंछकर तथा एक थाली में चावलों का स्वस्तिक बनाकर तीर्थंकरों का आह्वान एवं स्थापना करते हुए एक कटोरी में कलश से जलधारा देकर अभिषेक पूजा करने का विधान है। बीसपंथी परम्परा चंदन, केशर आदि सुगन्धी द्रव्यों के मिश्रित रस से प्रतिष्ठित मूर्ति के चरण युगल पर तिलक और विलेपन से चंदन पूजा करते हैं वहीं तेरहपंथी परम्परा चंदन आदि से मिश्रित द्रव्य घोल से स्थापना वाली थाली में धारा देते हैं।
बीसपंथी परम्परा में सचित्त पुष्प आदि जिन प्रतिमा पर चढ़ाते हैं वहीं तेरहपंथी केसरिया लवंग मिश्रित चावल थाली में चढ़ाते हैं। धूप एवं दीप जलाकर दोनों परम्परा में पूजा की जाती है। बीसपंथी परम्परा संध्या आरती आदि को भी मान्य करती हैं। अक्षत पूजा हेतु अक्षत की पाँच ढेरियाँ करने का विधान दोनों में मान्य है परन्तु नैवेद्य, फल, नृत्य, गायन आदि बीसपंथी परम्परा में ही स्वीकृत है। तेरहपंथी के अनुयायी वर्ग स्थापित थाली में गरी-गोले के टुकड़े चढ़ाकर नैवेद्य एवं फल पूजा करते हैं।
यदि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा की तुलना की जाए तो श्वेताम्बर परम्परा एवं बीस पंथी परम्परा के पूजा विधानों में प्राय: समानता है। दोनों ही परम्पराएँ पुरुषों के समान स्त्रियों को भी पूजा का अधिकारी मानते हैं। पूजा सम्बन्धी विधि-विधानों को हिंसा या आडंबर नहीं मानते। वर्तमान में दिगम्बर परम्परा तीर्थंकर की मात्र केवलज्ञान और सिद्धावस्था को ही पूज्य मानकर शेष अवस्थाओं का निषेध करती है तथा परमात्मा की अंगरचना आदि भी इस परम्परा में नहीं की जाती। यद्यपि उनके ग्रन्थों में उक्त विषय सम्बन्धी वर्णन प्राप्त होते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी एवं तेरहपंथी के समान दिगम्बर परम्परा में तारणपंथ जिनपूजा एवं जिनमूर्ति को स्वीकार नहीं करता है। परिवर्तन के परिणाम
परिवर्तन यह सृष्टि का शाश्वत नियम है। प्रत्येक द्रव्य में सतत पर्याय परिवर्तन होता रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक एक जीव में सैकड़ों दृष्टिगम्य परिवर्तन होते हैं वहीं प्रतिपल होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों की तो कोई गिनती ही