Book Title: Puja Vidhi Ke Rahasyo Ki Mulyavatta
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 457
________________ जिनपूजा सम्बन्धी विषयों की विविध पक्षीय तुलना... ...391 मिलता है। सर्वोपचारी जहाँ पर्व प्रसंग एवं विशेष अवसर पर किया जाने वाला पूजा विधान था। वही पंचोपचारी एवं अष्टोपचारी पूजाएँ नित्य कर्तव्य पूजाएँ रही होगी। ___आचार्य हरिभद्रसूरि ने पूजाष्टक प्रकरण में अष्टपुष्पी पूजा का निरूपण किया है जिसमें प्रारम्भिक चार में द्रव्यपूजा के रूप में जाई आदि के पुष्प चढ़ाने का नियम है वही अन्तिम चार पूजाओं में अहिंसा आदि नियम रूप भावपुष्प चढ़ाने का उल्लेख है। इससे ऐसा प्रतिभासित होता है कि उस समय में पुष्प पूजा मुख्य एवं विशेष प्रचलित रही होगी। आचार्य जिनेश्वरसूरि ने इसकी टीका में सुवर्ण आदि पुष्प चढ़ाने का उल्लेख किया है जिसके अनुकरण रूप ही वर्तमान में मूर्तियों पर सोने-चाँदी की गोल टिकिया लगाई जाती है। __ सत्रहभेदी पूजा का निरूपण शास्त्रोक्त माना जाता है एवं मध्यकालीन अनेक ग्रंथों में इसका वर्णन प्राप्त होता है। यद्यपि कुछ ग्रंथों में इस पूजा के प्रकारों को लेकर अंतर भी परिलक्षित होता है। अचलगच्छीय मुनि मेघराज एवं खरतरगच्छीय आचार्य श्रीजिनलाभसूरि ने दीपक, नैवेद्य, फल, आरती, मंगलदीपक आदि को सत्रहभेदी पूजा में समाविष्ट नहीं किया है। संबोधप्रकरण एवं श्राद्धविधि में वर्णित सत्रहभेदी पूजा में भी एकरूपता नहीं है। सत्रहभेदी पूजा के अतिरिक्त इक्कीस प्रकार की पूजा का वर्णन भी जैन पूजा विधानों में परिलक्षित होता है। इक्कीस प्रकारी पूजा के संस्कृत पद्य वाचक उमास्वातिजी कृत माने जाते हैं। किन्तु यह पूजा प्रकरण तेरहवीं शती के किसी चैत्यवासी विद्वान की कृति होनी चाहिए। पूजा प्रकरण में प्राप्त विधि के आधार पर अर्वाचीन काल के उपाध्याय सकलचंद्रजी ने भी इक्कीस प्रकार की पूजा बनायी है जिसमें मूल पूजा विधि से कुछ अंतर परिलक्षित होते हैं। इसमें पत्र, पूग, वारि, स्तुति एवं कोशवृद्धि पूजा को अन्तर्भूत नहीं किया है। इसके अतिरिक्त अन्य पूजाएँ भी आगे-पीछे अस्त व्यस्त रूप में प्राप्त होती है। इन पूजाओं के अतिरिक्त कुछ नैमित्तिक पूजाएँ भी वर्तमान में प्रचलित है जैसे अष्टोत्तर शताभिषेक, अष्टोत्तरी स्नात्र, शान्ति स्नात्र, अर्धाभिषेक आदि। इसमें से अष्टोत्तर शताभिषेक विक्रम की बारहवीं शती की अर्धाभिषेक से भी पूर्वकालीन है तथा अष्टोत्तरी स्नात्र एवं शान्तिस्नात्र क्रमशः सोलहवीं और सत्रहवीं सदी की रचनाएँ हैं।

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