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अध्याय-5
मन्दिर जाने से पहले सावधान
जिनमन्दिर जाने का मुख्य हेतु है आत्मा को कर्म भार से मुक्त करते हु शुद्ध परमात्म स्वरूप को प्राप्त करना । इस परमोच्च अवस्था की प्राप्ति के लिए हमारी क्रिया भी उतनी ही उत्कृष्ट होनी चाहिए। कोई भी कार्य तभी सफल हो सकता है जब उसे यथोचित विधि मार्ग का पालन करते हुए एवं उसके लिए निषिद्ध मार्गों से बचते हुए पूर्ण किया जाए। ठीक वैसे ही जैसे Doctor द्वारा दी गई औषधि को सही निर्देशित समय पर विधिपूर्वक लेने एवं अपथ्य एवं निषेधित वस्तुओं का परहेज रखने पर ही वह औषधि रोग निवारण में सहायभूत बनती है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखकर जैनाचार्यों ने जिनदर्शन के सम्पूर्ण लाभ प्राप्ति के उद्देश्य से कई कार्यों का निषेध किया है अथवा उनसे बचने का निर्देश दिया है, जिससे आराधना स्थल आत्म - विराधना का कारण न बन जाए। इसी के साथ मन्दिर में करने योग्य आचरण का भी विवेचन जैन ग्रन्थकारों द्वारा किया गया है, जिनके पालन द्वारा शुद्ध रूप से परमात्म पूजन-वन्दन आदि किया जा सकता है। इस अध्याय में उसी का विवेचन किया जा रहा है।
जैन वाङ्मय में आशातना का स्वरूप
आशातना एक जैन पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ विन्यास करते हुए विद्वत वर्ग ने 'आ' का अर्थ समस्त प्रकार से और 'शातना' का अर्थ विनाश किया है अतः जिस कार्य के द्वारा निश्चित रूप से आत्मा का विनाश हो वह आशातना है। शुभ कार्य, ज्ञान आर्जन, उचित व्यवहार आदि महान आत्मगुणों के लाभ में विनाश करने वाला अविनययुक्त आचरण भी आशातना कहलाता है। जिन मन्दिर, गुरू महाराज, तीर्थ दर्शन, सामायिक आदि के विषय में विशेष रूप से आशातनाओं का उल्लेख किया गया है।