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298... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
1. सावद्य व्यापार और सावद्य परिणाम
2. सावद्य व्यापार और निरवद्य परिणाम
3. निरवद्य व्यापार और सावद्य परिणाम
4. निरवद्य व्यापार और निरवद्य परिणाम
इसमें प्रथम विभाग मिथ्यात्व के आश्रित है। दूसरा विभाग सम्यग्दृष्टि एवं देशविरति श्रावक संबंधी है क्योंकि श्रावक के लिए देवपूजा, गुरु दर्शन आदि धार्मिक कार्य दिखने में यद्यपि सावद्य प्रतीत होते हैं, परंतु गृहस्थ के परिणाम हिंसा के नहीं होने से वहाँ केवल स्वरूप हिंसा होती है । यह पाप आकाश- कुसुम की तरह आत्मा को लग ही नहीं पाता। तीसरा विभाग प्रसन्नचंद्र राजर्षि जैसे का जानना चाहिए और चौथा विभाग सर्वविरति साधु सम्बन्धी है। इससे स्पष्ट है कि देवपूजा आदि कार्यों में मात्र स्वरूप हिंसा ही होती है। इसी सूत्र में कर्म बंधन (आस्रव) के पाँच द्वारों का वर्णन है । 4
पंच आसवदारा पन्नता, तं जहा- 1. मिच्छत्तं 2. अविरई 3. पमाओ 4. कसाय 5. जोगा ।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । ये पाँच आस्रव द्वार हैं। जिनपूजा करते समय चित्त शान्त, अप्रमत्त, सम्यक्त्व सहित होता है। विधिपूर्वक क्रिया होने से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय का उदय नहीं होता अत: अशुभ कर्म बंधन नहीं होता। शुभ योग होने से पुण्यबंध ही होता है। स्थानांगसूत्र में प्राप्त इन उल्लेखों से जिनपूजा हिंसाजन्य नहीं है, यह सुसिद्ध हो जाता है।
समवायांगसूत्र के समवसरण अधिकार में भगवान महावीर को केवलज्ञान होने के पश्चात उत्पन्न होने वाले अष्टप्रतिहार्यों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।' समवसरण में अरिहंत स्वयं रत्नजड़ित सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजकर देशना देते हैं तथा शेष तीन दिशाओं में इन्द्रों के द्वारा उनके तीन प्रतिबिम्बों की स्थापना की जाती है। उन दिशाओं से आने वाले लोग प्रतिबिम्बों को साक्षात प्रभु मानकर वन्दना आदि करते हैं। परमात्मा इन अष्टप्रातिहार्यों का भोग करते हुए भी भोगी नहीं कहलाते, क्योंकि भोगीपन बाह्य पदार्थों से नहीं आन्तरिक मोह एवं आसक्ति से सम्बन्धित है।