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338... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म....
द्रव्य वीतराग देव आदि के लिए ही प्रयोग में लेना है उसे ही देवद्रव्य मानना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो पदार्थ मात्र संकल्पित हुआ हो या जिस पर परमात्मा की दृष्टि अनायास ही गिर गई हो वह देवद्रव्य नहीं है ।
शास्त्रों में इसे मृग नामक एक ब्राह्मण श्रावक का उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है। एकदा मृग ने कोई नैवेद्य मन्दिर में चढ़ाने हेतु संकल्पित किया था। घर में मुनि महाराज पधारे एवं वह द्रव्य उसने उन्हें बहरा दिया। इस तरह संकल्पित द्रव्य का दान देकर भी उसने अनंत पुण्य का अर्जन किया।
संबोध प्रकरण में देवद्रव्य के मुख्य तीन प्रकार बताए गए हैं- 1. पूजा देवद्रव्य 2. निर्माल्य देवद्रव्य और 3. कल्पित देवद्रव्य ।
1. पूजा देवद्रव्य - जिनप्रतिमा की अंग एवं अग्रपूजा के रूप में प्रयोग किया जाने वाला द्रव्य, पूजा देवद्रव्य कहलाता है। इसका उपयोग परमात्मा की अंग एवं अग्र पूजन के लिए तथा अधिक हो जाए तब मंदिर के जीर्णोद्धार एवं नूतन मंदिर निर्माण के लिए हो सकता है ।
2. निर्माल्य देवद्रव्य - परमात्मा की भक्ति हेतु प्रयुक्त ऐसी वस्तुएँ जो पुनः प्रयुक्त नहीं की जा सकती उसे निर्माल्य देवद्रव्य कहते हैं जैसे- बरख बादाम, मिश्री, प्रक्षाल आदि । वर्क आदि थोड़े समय में गन्ध वाले हो जाते हैं। अत: विगन्धी द्रव्य कहलाते हैं तथा परमात्मा के सम्मुख रखे जाने वाले बादाम, मिश्री आदि द्रव्य अविगन्धी निर्माल्य देवद्रव्य कहलाते हैं। विगन्धी द्रव्य का प्रयोग परमात्मा के आभूषण आदि बनाने में कर सकते हैं। शेष द्रव्य का उपयोग जिनमंदिर निर्माण आदि में हो सकता है।
अपरिहार्य परिस्थिति में इसका प्रयोग जिनपूजा के उपकरण लाने में हो सकता है, ऐसा मुनि पीयूषसागरजी म.सा. का मत है।
कल्पित देवद्रव्य - वह द्रव्य जो कल्पना करके दिया जाए उसे कल्पित देवद्रव्य कहते हैं। जैसे किसी श्रावक ने जिन प्रतिमा भराने हेतु एक लाख रुपया दिया तो वह द्रव्य कल्पित देवद्रव्य कहलाता है। इसका प्रयोग भी देवद्रव्य के रूप में ही होता है। उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा. के अनुसार कल्पित देवद्रव्य और पूजार्ह देवद्रव्य के उद्गम का तरीका भिन्न होने से मात्र भेद है अन्यथा दोनों समान है। मुनि श्री पीयूषसागरजी म.सा. के अनुसार जिनमंदिर की समुचित व्यवस्था हेतु श्रेष्ठी दानवीरों द्वारा जो कायमी मिति की व्यवस्था की