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296... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म... कुमारपाल प्रतिबोध चरित्र, सुंदरगणिकृत आचारोपदेश, उपाध्याय मानविजयजी कृत धर्म संग्रह जिनदत्तसूरि कृत चर्चरी प्रकरण, संवेगरंगशाला आदि अनेकानेक ग्रन्थों में जिनपूजा विषयक चर्चा की गई है। ____ अर्वाचीन साहित्यकारों के द्वारा भी इस विषय में पूर्व परम्परा का अनुकरण करते हए ही कार्य किया गया एवं देशकाल-परिस्थिति के अनुसार कुछ परिवर्तन भी किए गए।
__ यदि दिगम्बर साहित्य की गवेषणा करें तो अनेक स्थानों पर जिन प्रतिमा एवं जिनपूजा विषयक चर्चा प्राप्त होती है। नरेन्द्रसेन भट्टाचार्य, प्रभाकर सेन एवं आशाधर कृत विविध प्रतिष्ठा पाठ योगेन्द्र कृत श्रावकाचार, भगवत्देव कृत जिनसंहिता विधि में अनेक प्रकार के पूजा विधानों का वर्णन है। इसी प्रकार
आदिपुराण, अजितनाथ पुराण, पद्मनन्दी पच्चीसी, षटकर्मोपदेश माला, हरिवंशपुराण, द्रव्यसंग्रह, भावसंग्रह, ज्ञानपीठ पुष्पांजलि पूजा संग्रह, बृहत कथा कोश, आराधना कोश, व्रत तिथि निर्णय, व्रतकथा कोश, श्रीपाल चारित्र, राजवार्तिक, जिनसंहिता, रयणसार धवला, शांतिपाठ आदि अनेक कृतियों में जिनपूजा का उल्लेख है।
प्रश्न हो सकता है कि जब आगमों एवं पूर्वाचार्यों द्वारा रचित साहित्य में इतने स्थानों पर जिनपूजा एवं जिनप्रतिमा सम्बन्धी विवरण प्राप्त होता है, तो फिर कुछ परम्पराएँ जिनपूजा का विरोध क्यों करती हैं?
जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। यहाँ प्रत्येक बात को सापेक्ष रूप से कहा जाता है। किसी भी वस्तु को समझाते समय कितने ही वचन उत्सर्ग रूप में, कितने ही अपवाद रूप में तो कितने ही विधिवाक्य एवं कितने ही अपेक्षा वाक्य होते हैं। सूत्रों में रहे हुए गंभीर आशय को ग्रहण करना हर किसी के लिए शक्य नहीं होता। कालक्रम की अपेक्षा एवं बाह्य वातावरण के अनुसार कई परिवर्तन प्रत्येक क्रिया में होते रहते हैं। जिनपूजा आदि में भी कुछ ऐच्छिक एवं अनैच्छिक परिवर्तन आए और कुछ अनैतिक प्रवृत्तियाँ भी प्रविष्ट हो गईं। उन कुरीतियों का विरोध करने के बदले अन्य मतों से प्रभावित होकर कुछ आचार्यों ने जिनपूजा एवं जिनमूर्ति का ही विरोध प्रारंभ कर दिया। जिस कारण जैनों में भी मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक आम्नायों का विभागीकरण हुआ। जिन-जिन आगमों में मूर्ति पूजा आदि के विशेष उल्लेख थे, स्वमत पुष्टि हेतु उन आगमों