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294... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
जिन प्रतिमा एक सर्वश्रेष्ठ आलम्बन कैसे ?
आचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री का कहना है कि " जो मन में भी नहीं वह पवित्रता मन्दिर में निवास करती है । मन्दिर पवित्रता का प्रतीक है। जिस दिन सहज ही पवित्रता का संयोग हो जाएगा उस दिन स्वयं मानस-मन्दिर बन जाएगा। अतएव साध्य को प्राप्त करने के लिए साधना का आलंबन होना आवश्यक है।
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मानव को जीवन जीने की सही दिशा देने के लिए तथा उसके सामने एक श्रेष्ठ आलंबन प्रस्तुत करने हेतु जिनप्रतिमा एक उत्तम माध्यम है। जिस प्रकार रिमोट कंट्रोल से टी.वी. के चैनल बदले जाते हैं, Mouse के द्वारा, Computer Screen को Control किया जाता है । उसी तरह आत्मा को बाहरी संसार से स्व स्वरूप की उपलब्धि करवाने का कार्य जिन प्रतिमा करती है। शुद्ध आत्म अवस्था की प्राप्ति के लिए एक विशुद्ध आत्मा का आलंबन होना भी परमावश्यक है। वस्तुतः जिनप्रतिमा मनुष्य के दिव्य चिंतन का ही मूर्त रूप है। आत्मा में समाहित सहिष्णुता, करुणा, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य आदि गुणों का साकार रूप है। उसे देखने मात्र से मन चिंतामुक्त होकर शुभ भावयुत हो जाता है। जिन रूप को देखकर स्वयं के भीतर छिपी हुई परमात्म शक्ति की अनुभूति होती है। नर से नारायण बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है ।
जिन प्रतिमा की प्रशान्त एवं मनमोहक मुखमुद्रा साकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करती है। उस वायुमण्डल के परिसर में जाने वाला व्यक्ति उन परमाणुओं के प्रभाव से ही उपशान्त बन जाता है। अतः चित्त की एकाग्रता, शुभ भावों में तल्लीनता एवं अध्यवसायों के शुद्धिकरण में जिनप्रतिमा ही सर्वश्रेष्ठ आलम्बन है।
प्राचीन एवं अर्वाचीन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में जिनपूजा
जिन प्रतिमा एवं प्रतिमा पूजन का वर्णन हमें प्रागैतिहासिक काल से ही प्राप्त होता है। भगवान आदिनाथ के समय में भरत ने अष्टापद तीर्थ पर वर्तमान चौबीसी के तीर्थंकरों की रत्नमय प्रतिमाएँ स्थापित की थी। इसी प्रकार आगम शास्त्रों में भी अनेक स्थानों पर जिन प्रतिमा का वर्णन आता है । अतीत चौबीसी के नौवें तीर्थंकर दामोदर के समय में शंखेश्वर पार्श्वनाथ की प्रतिमा का निर्माण हो गया था। यदि जैन श्रुत साहित्य का अवलोकन करें तो प्राच्य काल से अब