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जिनपूजा की प्रामाणिकता ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय संदर्भों में ...303
श्री भद्रबाहुस्वामी आवश्यकनियुक्ति में फरमाते हैं कि देशविरति श्रावक को पुष्पादि के द्वारा द्वव्यपूजा अवश्य करनी चाहिए। यह द्रव्यपूजा कुँए के दृष्टांत के समान संसार को पतला करने वाली है। 45
आचार्य हरिभद्रसूरिकृत आवश्यकवृत्ति के अनुसार जिनपूजा से पुण्य का अनुबन्ध और बहुनिर्जरा होती है। 46
श्री भद्रबाहुस्वामी आवश्यकनिर्युक्ति में कहते हैं कि तीर्थकरों की कल्याणक भूमियों का स्पर्श करने से निश्चित रूप से सम्यक्त्व दृढ़ होता है | 47 श्री आवश्यकसूत्र की बृहद्वृत्ति के द्वितीय खण्ड में सूत्रकार कहते हैं कि जिस प्रकार किसी नए नगर में पर्याप्त जल के अभाव में बहुत से लोग प्यास से व्याकुल होकर कुँआ खोदते हैं उस समय उन्हें अधिक प्यास लगती है, कीचड़ और मिट्टी से शरीर, कपड़े आदि भी मलिन हो जाते हैं, किन्तु कुँआ खुद जाने के बाद प्यास कम हो जाती है और कीचड़ भी दूर हो जाता है। इससे भविष्य काल के लिए खोदने वाला एवं अन्य लोग सुख की अनुभूति करते हैं। उसी प्रकार द्रव्यपूजा में स्वरूप हिंसा दिखाई देती है, परन्तु उस पूजा से परिणामों की जो शुद्धि होती है उससे अन्य संताप भी क्षीण हो जाते हैं। इस हेतु देशविरति श्रावक के लिए जिनपूजा शुभानुबंधी एवं निर्जरा फल को देने वाली है। 48
बृहत्कल्पभाष्यकार लिखते हैं कि पूर्वकाल में स्नान, अनुयान आदि महोत्सवों में साधुवर्ग सम्मिलित होता था, उसमें साधु के लिए आधाकर्मिक दोष टालने का निर्देश था। इससे यह स्पष्ट होता है कि अभिषेक, रथयात्रा आदि में सम्मिलित होना साधु के लिए दोष पूर्ण नहीं है। 49
आचार्य अभयदेवसूरि समवायांग टीका में स्नान उत्सव, रथयात्रा, पट्टयात्रा आदि के प्रसंगों में जहाँ बहुत साधु इकट्ठे मिलते है उसको समवसरण कहा है 50
उक्त प्राचीन उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि जैन पूर्वधरों के काल में भी रथयात्रा, जिनजन्माभिषेक, पट्टयात्रा आदि धार्मिक कृत्य प्रचलित थे।
इनके अतिरिक्त अनेक जैन सूत्रों में यानरथ, अनुयानरथ, अष्टाह्निकामहिमा, समवसरण, काल समवसरण, प्रथम समवसरण, द्वितीय समवसरण आदि शब्द