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244... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
आरती एवं मंगल दीपक के लौकिक एवं लोकोत्तर लाभ
जिनपूजा यह भगवान को आदर-सम्मान देने एवं उनके प्रति विनय अभिव्यक्त करने का श्रेष्ठ माध्यम है। आरती इसी विधि का एक चरण है। जब घर पर कोई मेहमान आते हैं, तो सर्वप्रथम प्रकाश किया जाता है। उसी प्रकार परमात्मा के स्वागत, बहुमान एवं सम्यक ज्ञान के प्रतीक रूप में आरतीमंगलदीपक आदि करने चाहिए ।
आरती का अर्थ करते हुए गीतार्थ आचार्यों ने कहा है- 'आसमन्तात रतिः ' अर्थात हे भगवन्! मेरा समग्र प्रेम केवल आपके विषय में हो। इस भाव से भगवान की प्रार्थना करना आरती है।
त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र के अनुसार दुखों को उतारने या हटाने की प्रक्रिया आरती है।
आरती यह संध्यापूजन की सूचक है। प्रसिद्ध गंगा तटों पर संध्या के समय आरती की जाती है।
पूर्वकाल में मंदिरों के गर्भगृह में अंधेरा होता था। भगवान के दर्शन करने हेतु दीपक को परमात्मा के नख से शिखा तक घुमाया जाता था और वही प्रक्रिया आरती के रूप में प्रचलित हुई। इसे करते हुए पूजक यही भावना करता है कि हे परमात्मन्! आपके दर्शन से मेरा जीवन भगवद् भक्ति में अनुरक्त बने तथा मुझे भगवद् स्वरूप प्राप्त हो ।
जिस प्रकार आरती में बाती जलती है उसी प्रकार परमात्मा की सेवा में मेरा जीवन समर्पित हो जाए। इस सेवा की ज्योत को अखंड रखने हेतु परमात्मभक्ति रूपी तेल उसमें सदा पूरित रहे।
दीपक के द्वारा परमात्मा की आरती करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, सौभाग्य जागृत होता है, अंधत्व कभी नहीं आता, अज्ञान एवं मोहरूपी अंधकार दूर होता है तथा दीक्षा से लेकर केवलज्ञान तक की प्राप्ति होती है। इसी के साथ आरती के दौरान हो रहा घंटनाद जब गली-गली में सुनाई देता है तो उसकी मंगल ध्वनि सर्वत्र गुंजायमान होने लगती है। इससे विश्वभर के जीव-जंतुओं की भीतरी अशुद्धियों का निवारण होता है ।
दीपक को लोकव्यवहार में मंगलरूप माना गया है। दीपावली के अवसर पर आनंद को प्रकट करने हेतु दीपक जलाए जाते हैं। जिनेश्वर परमात्मा के आगे दीपक प्रज्वलित करने का तात्पर्य है उन्नति की श्रेणी मांडना । किसी के