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अध्याय-8 जिनपूजा की प्रामाणिकता ऐतिहासिक एवं
शास्त्रीय संदर्भो में
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहने और जीने के लिए उसे विविध आलंबनों की आवश्यकता रहती है। जैसे जन्म और पालन-पोषण के लिए माता-पिता की, पढ़ाने के लिए Teacher की, इलाज के लिए Doctor की, रहने के लिए घर की तो, पढ़ने के लिए School और व्यापार के लिए Office की। इसी तरह साधना-उपासना के क्षेत्र में आलंबन का सहयोग लेकर ही आत्म विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इसी आत्मोकर्ष के भाव से विविध साकार एवं निराकार आलंबनों का प्रादुर्भाव अलग-अलग समय में हुआ। साकार आलम्बन का बदलता स्वरूप
जैन धर्म में आत्मोत्थान हेतु विशेष रूप से देव, गुरु और धर्म रूपी तत्त्वमयी का आलम्बन स्वीकार किया जाता है। अरिहंत परमात्मा देव रूप हैं
और उनके आज्ञापालक साधु-साध्वी आदि गुरु रूप हैं। केवलज्ञान की प्राप्ति होने के पश्चात तीर्थंकर परमात्मा चतुर्विध संघ रूप धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं। इसी के साथ अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए धर्म की प्रभावना करते हैं। साक्षात तीर्थंकर परमात्मा जिन-जिन क्षेत्रों से देशना देकर विहार कर देते थे, वहाँ के लोग उनकी पुण्य स्मृति रूप चित्रपट्ट फलक (Paintings) का निर्माण करवाकर अपने-अपने घरों में लगाते थे। कालान्तर में उन्हीं वस्त्र पट्ट और फलक आदि का स्थान विकसित होते-होते धातु, रत्न, पाषाण आदि से मूर्ति रूप में शिल्प आकृतियाँ बननी प्रारंभ हुईं। मूर्तियों के साथ उनके अष्टप्रातिहार्य का भी चित्रण होने लगा। कालान्तर में भक्ति स्वरूप उन प्रतिमाओं के समक्ष वंदन, पूजन, चैत्यवंदन आदि किया जाने लगा। क्षणै:-क्षणैः प्रतिमा पूजन एक आत्म श्रेयस्कर दैनिक प्रवृत्ति बन गई। यद्यपि प्रतिमा पूजन को किसी न किसी