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198... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
तो मामला वैसे ही बिगड़ सकता है जैसे कढ़ाई भर हलवा मुट्ठी भर रेत या नमक डालने से बिगड़ जाता है। हम जिनमंदिर जाते हैं विषय- कषाय को क्षीण करने, उन्हें दूर करने, परन्तु यदि हमारी यही क्रियाएँ अपने और दूसरे के बंधन का कारण बनें, उग्रता उत्पन्न करें तो हमारा जिनालय जाना निरर्थक हो जाएगा।
नित्य दर्शन-पूजन करने वालों को उदारता एवं सरलता का परिचय देते हुए नए जुड़ने वालों के प्रति अनुराग दिखाना चाहिए तथा उन्हें प्रत्येक कार्य में प्रमुखता देनी चाहिए। मन्दिर में प्रवेश करने के साथ ही प्रत्येक श्रावक को क्रोध, आवेग, आवेश का त्याग कर देना चाहिए। साथ ही अन्यों के ऊपर रौब, हुक्म आदि भी नहीं चलाना चाहिए, क्योंकि जिनमंदिर में सभी समान रूप से परमात्मा के सेवक हैं। मंदिर परिसर में आने के बाद बाह्य मन-मुटाव को विस्मृत करके आना चाहिए । यदि कोई ऐसी परिस्थिति हो तो वहाँ से हट जाना ज्यादा बेहतर है। अन्य दर्शनार्थी एवं पूजार्थियों की संख्या को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक कार्य चाहे स्नान हो या पूजा शीघ्र निपटाना चाहिए जिससे अन्य दर्शनार्थियों को इससे विक्षेप उत्पन्न न हो। जो लोग आराम से पूजा करना चाहते हैं उन्हें अन्य लोगों को कषाय उत्पन्न न हो उसे ध्यान में रखते हुए पूजा के लिए ऐसा समय नियुक्त करना चाहिए जब अन्य दर्शनार्थी कम आते हों अन्यथा शीघ्र पूजा करके बाहर आ जाना चाहिए।
सम्भव है किसी का इस विषय में उपयोग न रहे और वह अधिक समय लगाए और इधर किसी को इतना समय रुकने की अनुकूलता न हो तो कलह या क्लेश करने की अपेक्षा अन्य अग्रपूजा एवं भावपूजा करके चले जाना चाहिए। यदि हमारे पास समय हो तो पीछे आने वालों को पहले लाभ लेने की प्रार्थना करनी चाहिए।
अधिक द्रव्य के उपयोग से या अधिक समय तक परमात्मा के पास खड़े रहने से अधिक लाभ नहीं मिलता अपितु परिणामों की सरलता, ऋजुता एवं उदारता से अधिक लाभ मिलता है। मन्दिर में उपलब्ध जल, पुष्प या केसर आदि कम हो तो संतोष एवं विवेकपूर्वक कम पदार्थ से ही काम निकाल लेना चाहिए। द्रव्य परमात्मा को ही तो अर्पण करना है, हम करें चाहे कोई और अन्य। उससे क्या फर्क पड़ेगा ? किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि घर से अन्य पूजा करते हैं तो वो हमारी तरफ से भी कर लेंगे, हम पूजा नहीं भी करें
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