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अष्ट प्रकारी पूजा का बहुपक्षीय अनुशीलन ... 163 ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है वैसे ही मेरे समस्त कर्म भी भस्मीभूत हो जाएं एवं शुद्ध आत्मा सिद्धशिला की तरफ ऊर्ध्वगमन करे ।
हे स्थिरात्मन्! जब अंगारे पर धूप जलता है तब उसकी सुगंधित धूम्र घटाएं ऊपर की ओर जाती हैं, उसी तरह मेरा भी मिथ्यात्व जल रहा है तथा सम्यक्त्व रूपी धूम्र घटायें मेरी आत्मा में प्रकट हो रही हैं। आपकी पुण्यकृपा से मेरा मिथ्यात्व मंद हुआ है तथा आपके और मेरे बीच रही दूरी भी कम हुई है। यदि आपकी पूर्ण कृपा हो जाए तो मेरा सम्पूर्ण मिथ्यात्व विनष्ट हो सकता है। हे पवित्रात्मन्! आपके शुद्ध स्वरूप के प्रति अपने आस्था भावों को दृढ़ हुए मैं भी अपने शुद्ध आत्म स्वरूप को प्राप्त करूं। दीपक पूजा से जलाएं अध्यात्म दीप
बनाते
प्रभु ! जिस प्रकार दीपक का प्रकाश अंधकार को दूर करता है उसी तरह आपकी दीपक पूजा करने से मेरे भीतर में रहा अज्ञान तिमिर नष्ट हो रहा है तथा सम्यकज्ञान का दीपक प्रकट हो रहा है।
हे कल्याणप्रदीप ! आपने अपने केवलज्ञान रूपी दीपक से समस्त विश्व के अंधकार का हरण कर मोक्ष मार्ग को जगत जीवों के लिए प्रकाशित किया है। हे भावदीपक ! यह द्रव्य दीपक तो चंचल है, अस्थिर है, हवा के एक झोंके से ही इसकी ज्योति हिलने लगती है। थोड़ी-थोड़ी देर के पश्चात इसमें घी या तेल भरना पड़ता है। ज्यों-ज्यों यह जलता है, त्यों-त्यों कालिमा निकलती है। यह स्वयं भी तपता है और दूसरों को भी तपाता है परन्तु आपका जो केवलज्ञान रूपी दीपक है, वह ऐसा अद्भुत एवं अनुपम है कि चाहे जितने हवा के झोंके आएं वह कभी चलायमान नहीं होता। उसमें किसी प्रकार के घी को पूरना नहीं पड़ता। वह निरंतर जलता रहता है। फिर भी उसमें से कालिमा के स्थान पर आत्मा को उज्ज्वल करने वाले तत्त्व ही निकलते हैं। वह न तो स्वयं तपता है न औरों को तपाता है। मात्र शीतलता, आलोक एवं तेज प्रदान करता है।
हे अविनाशी ! दीपक की ज्योत को स्पर्श करके जिस प्रकार पतंगा जलकर भस्म हो जाता है, वैसे ही आपके ज्ञान रूपी दीपक के प्रभाव से मेरी पाप रूपी पतंगे जल रही हैं।