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भावे भावना भाविए... 173
द्वारा परमात्मा को मात्र नमस्कार ही नहीं किया जाता अपितु परमात्म गुणों का अनुमोदन, कीर्तन, मनन करते हुए उन्हें स्वयं में उत्पन्न करने का प्रयत्न भी किया जाता है। यह जीव में गुणानुरागी वृत्ति का वर्धन करती है तथा आत्मा को परमात्म पद पर बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करती है। भावपूजा का मुख्य हेतु अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर प्रयाण करना है। द्रव्यपूजा द्वारा संसार के प्रति निरसता एवं त्यागवृत्ति उत्पन्न करने के बाद भावपूजा के माध्यम से आंतरिक वैराग्य को प्रकट किया जाता है।
जिस प्रकार द्रव्यपूजा जिन चैत्य में की जाती है उसी तरह भाव पूजा भी उत्सर्गत: जिनप्रतिमा के समक्ष ही की जाती है। यदि कहीं पर जिनालय न हो अथवा वहाँ जाना संभव न हो तो गृह मन्दिर, परमात्मा की फोटो आदि आलम्बन के सम्मुख भी जिनपूजा की जा सकती है । साधु-साध्वी जिनप्रतिमा के अभाव में स्थापनाचार्य के समक्ष भी चैत्यवंदन रूप भावपूजा करते हैं।
शास्त्रोक्त निर्देश अनुसार द्रव्यपूजा करने वाले श्रावक को प्रथम द्रव्य पूजा एवं तदनन्तर भावपूजा करनी चाहिए। द्रव्य पूजा एक सार्वजनिक आवश्यक विधान नहीं है परंतु द्रव्य पूजा के त्यागी साधु-साध्वियों के लिए भी भावपूजा परमावश्यक मानी गई है। यह एक सर्वजन आवश्यक विधान है।
भावपूजा में प्रमुख रूप से चैत्यवंदन विधि का समावेश होता है। जैनाचार्यों ने प्रतिदिन सात बार चैत्यवंदन करने का विधान किया है। श्रावक को कम से कम त्रिकाल चैत्यवंदन तो अवश्य करना चाहिए । अ
चैत्यवंदन की विविध कोटियाँ
पंचाशक प्रकरण, चैत्यवंदन भाष्य आदि के अनुसार चैत्यवंदन के तीन प्रकार हैं 4- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3 उत्कृष्ट।
1. जघन्य चैत्यवंदन - केवल नमस्कार मन्त्र के द्वारा अथवा अंजलिबद्ध मुद्रा में नमो जिणाणं' बोलकर जो वंदन किया जाता है वह जघन्य चैत्यवंदन कहा जाता है। यह चैत्यवंदन एक पदरूप नमस्कार या 1 श्लोक से लेकर 108 श्लोक द्वारा अथवा एक नमुत्थुणं सूत्र द्वारा भी किया जाता है। इन्द्रों के द्वारा मात्र नमुत्थुणं सूत्र बोलकर ही चैत्यवंदन किया जाता है। 5
2. मध्यम चैत्यवंदन- दंडक और स्तुति युगल पूर्वक चैत्यवंदन करना मध्यम चैत्यवंदन है। दंडक और स्तुतियुगल के शास्त्रकारों ने तीन अर्थ किए