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भावे भावना भाविए ...179 विधि की महत्ता बताते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि विद्वानों को भी चैत्यवंदन की शुद्ध प्रक्रिया का निरूपण करते हुए अप्रमत्त होकर जिनवन्दना करनी एवं करवानी चाहिए क्योंकि मुग्ध जीव दूसरों को देखकर ही प्रवृत्ति करते हैं तथा चैत्यवंदन करने मात्र से मोक्ष नहीं होता अपितु शुद्ध चैत्यवंदन करने से ही मोक्ष होता है।18
विधि का ज्ञान न होने पर यदि कोई विधि विहीन वंदना करता भी हो तो उपासकों की योग्यता अनुसार उन्हें जिनवंदन हेतु अवश्य प्रेरित करना चाहिए। जिस प्रकार रोगी को उसकी बीमारी, अवस्था एवं शारीरिक क्षमता के अनुसार
औषधि दी जाती है और तभी वह लाभ करती है। वैसे ही जगत कल्याणकारी वन्दना विधि भी जीवों को उनकी योग्यता के अनुसार बतानी चाहिए।19
सामान्य खेती आदि की क्रियाएँ भी यदि विधिपूर्वक की जाएं तो वह शुभ परिणामी होती हैं तो फिर विधिपूर्वक की गई जिनपूजन, वंदन आदि क्रियाएँ लौकिक एवं लोकोत्तर सुख को क्यों नहीं दे सकतीं? इसलिए शुद्ध विधि से चैत्यवंदन आदि की आराधना करनी चाहिए। आर्य संस्कृति में भावपूजा का महत्त्व ___ भावपूजा का मुख्य हेतु शुभ भावों को उत्पन्न करना है। एक बार समुत्पन्न शुभ भाव प्राय: नए भावों का सर्जन करते हैं। यह कर्म रूपी शत्रुओं से रक्षा करते हुए मोक्ष मार्ग में दुर्ग (किला) की भाँति आश्रय प्रदान करती है।20 ___ सामान्य मंत्र की साधना में भी विधि शुद्धता का पूर्ण ध्यान रखा जाता है अन्यथा वह मंत्र साधना निष्फल हो जाती है। वैसे ही भावपूजा रूप चैत्यवंदन सम्यक विधिपूर्वक करने पर ही शुभ परिणामों को उत्पन्न करता है। भावशुद्धि से रहित द्रव्यशुद्धि या द्रव्यपूजा से कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। भावपूजा के द्वारा आत्मभावों की शुद्धि होती है तथा राग आदि के संस्कार दूर होते हैं। आत्मनिंदा, गर्हा, पापों का प्रायश्चित्त, प्रभु का गुणगान आदि परमात्मा के समक्ष करने से प्रमोद भावों का जागरण होता है।
चैत्यवंदन के द्वारा आठ प्रकार के शुभ परिणामों की उत्पत्ति होती है। इसके माध्यम से जिनेश्वर परमात्मा का पूजन, वंदन, सत्कार, सम्मान, बोधिलाभ (सम्यक्त्व प्राप्ति), उपसर्ग हरण और शासन देवी देवताओं का