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जिनपूजा का सैद्धान्तिक स्वरूप एवं उसके प्रकार...
प्रचलित है। यह अष्टप्रकारी पूजा के रूप में की जाती है। अन्य भेदों का प्रचलन वर्तमान में परिलक्षित नहीं होता ।
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त्रिविध प्रकारी पूजा के समान ही शास्त्रों में चार प्रकार की पूजा का उल्लेख भी मिलता है।
चतुर्विध प्रकारी पूजा
चार प्रकार की पूजा का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र, ललित विस्तरा, वसुदेव हिंडिका, संबोध प्रकरण आदि में प्राप्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में चौथी प्रतिपत्ति पूजा ग्यारहवें, बारहवें एवं तेरहवें गुणस्थानक वाले जीवों के लिए बताई गई है। 36 आनंदघनजी महाराज रचित नौवें सुविधिनाथ भगवान के स्तवन में यह वर्णन आता है | 37 प्रतिपत्ति अर्थात आज्ञा पालन । परमात्मा की पूर्ण आज्ञा का पालन इन्हीं तीन गुणस्थानों में होता है क्योंकि ग्यारहवें में गुणस्थान मोहनीय कर्म का पूर्णतः उपशम हो जाता है तथा बारहवें एवं तेरहवें गुणस्थान में उसका सम्पूर्ण क्षय ही हो जाता है। मोहनीय कर्म के अभाव में यह जीव सत्य का सम्पूर्ण आचरण कर सकता है।
देवचंद्रजी महाराज द्वारा रचित आठवें स्तवन के अनुसार नैगम नय की अपेक्षा चौथे गुणस्थान से ही अंशतः प्रतिपत्ति पूजा का प्रारंभ हो जाता है तथा ग्यारहवें, बारहवें एवं तेरहवें गुणस्थानक में इसका पालन भूत नय की अपेक्षा से जानना चाहिए | 38 ललित विस्तरा, वसुदेव हिंडिका, संबोध प्रकरण आदि में पुष्प, नैवेद्य, स्तोत्र और प्रतिपत्ति पूजा इन चार भेदों का वर्णन करते हु चारों को उत्तरोत्तर प्रधान माना है | 39 इन्हें अंग, अंग्र, भाव एवं प्रतिपत्ति पूजा भी कहीं-कहीं पर कहा गया है।
ललित विस्तरा 140 में नैवेद्य या आहार के लिए 'आमिष' शब्द का प्रयोग हुआ है। वर्तमान में आमिष शब्द का जनप्रचलित अर्थ मांस आदि प्राणिज भोजन पदार्थ (non-veg food) होता है। मूलत: आमिष शब्द अनेकार्थक है। जैसे कि मांस, भोज्य वस्तु, रोचक वर्ण आदि का लाभ, संचय का लाभ, रोचक रूप, रोचक शब्द, नृत्य आदि इन्द्रिय विषय, भोजन इत्यादि । यहाँ पर उचित एवं यथासंभव अर्थों का योजन करना चाहिए। तदनुसार प्रस्तुत अधिकार में आमिष का अभिप्राय मांस आदि अभक्ष्य वस्तुएँ नहीं हैं। दूसरा तथ्य यह है कि श्रावक वही पदार्थ मंदिर में चढ़ाता है जो वह स्वयं उपयोग में ले सकता है।