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चालिनी वस्त्र सूपं च मुशलं घट्टियंत्रकम् । स्वतोन्यैः स्पर्शितः शुद्धं जायते क्षालनात्परम् ।। स्वप्ने तु येन यद् भुक्तं तत्याज्यं दिवसत्रयम् । मद्यं मांसं यदा भुक्तं तदोपवासकद्वयम् ।। ब्रह्मचर्यस्य भंगे तु निद्रायां परवश्यतः । सहसेकं जगेज्जापमेक भक्तं त्रयं भवेत् ।। मात्र शामिन्या का वारेमा आगले ! उपवासद्वये स्वप्ने सहस्रकं जपोत्तमम् । मिथ्यादृष्टि गृहे रात्रौ भुक्तं वा शूद्रसदानि । तदोपवासाः पंचस्युःजाप्यं तु द्विसहस्रकम् ।। इत्येवमल्पशः प्रोक्तः प्रायश्चित्तविधिः स्फुटम् ।
अन्यो विस्तारतो ज्ञेयः शास्त्रेष्वन्येषु भूरिषु ।। इस प्रकार प्रायश्चित्त का विधान त्रिवर्णाचार के नौवे अध्याय में लिखा है
कदाचित् यहाँ पर कोई यह प्रश्न करे कि इस प्रायश्चित्त की विधि में गौदान तथा ब्राह्मण को दान देना लिखा है सो यह कहना वा करना तो जिनधर्म से बाह्य है ऐसा तो अन्यमती कहते हैं इसलिए ऐसा श्रद्धान करना खोटा है। तो इसका समाधान यह है कि जैन शास्त्रों में चार वर्ण बतलाये हैं। तीन वर्ण तो अनादि से चले आ रहे हैं तथा चौथा ब्राह्मण वर्ण महाराज भरत ने स्थापन किया है। जो क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टि, उपासकाचार के साधन, दान के पात्र, ब्रह्मज्ञान के प्रकाशक, बारह तप और पाँचों अणुव्रतादि को पालन करने वाले थे उनने ब्राह्मण वर्ण स्थापन किया था। सो ही लिखा है -
ब्रह्म ज्ञान विकाशकाः तपोव्रतयुतास्ते ब्राह्मणाः । ऐसे ब्राह्मण सम्यग्दर्शन आदि अनेक गुणों को पालन करते हैं और रत्नत्रय के चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत को धारण करते हैं। ऐसे धर्मात्मा ब्राह्मणों को दान देना ससस
स ससस प्रायश्चित्त बिधान . २०
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