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___ मूलगुण और उत्तर गुण के विषय में विशेष प्रायश्चित्त शास्त्र के अनुसार यति और श्रावकों की शुद्धि संक्षेप से कहीं जाती है। वह इस प्रकार है। मूलगुण
और उत्तरगुण दो प्रकार के हैं यतियों के और श्रावकों के । यतियों के मूलगुण अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इत्यादि अट्ठाईस हैं। श्रावकों के मूलगुण मद्यत्याग, मांस त्याग, मधुत्याग पांच उदम्बर फलों का त्याग ऐसे अनेक प्रत्येक प्रकार के आठ है। तथा यतियों के उत्तरगुण आताफ्ना तोरण स्थान मौन आदि अनेक हैं और श्रावकों के उत्तरगुण सामायिक प्रोषधोपवास आदि हैं। नगो लगे हुए दो की मुन्द्धि शेषो कही जाती है।
प्रायश्चित्तेसास स्थान पारितादिना पुनः ।
न तीर्थन विना तीर्थान्त वृत्ति स्तदवृथावृतं ।। प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र नहीं है। चारित्र के अभाव में धर्म नहीं है और धर्म के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति नहीं है इसलिए व्रत धारण करना व्यर्थ है। प्रायश्चित्त ग्रहण करने से ही व्रतों की सफलता है अन्यथा नहीं।
यावेतः स्युः परीणमास्तावंतिच्छेद नान्यपि ।
प्रायश्चित्तं समर्थः को दातुं कर्तुभ होमते ॥ जितने परिणाम है उत्तने ही प्रायिश्चत है इस प्रकार उतना प्रायश्चित्त न तो कोई देने में समर्थ है और न कोई करने को समर्थ है ॥१६३ ॥
सह समणणं भणिवं समणीणं तहय होई मलहरणं।
वज्जिय तियाल जोगां हिणपडियं छेड मालं च।। जो पहले मुनिश्वरों के प्रायश्चित का वर्णन किया है, उसी प्रकार आर्यिकाओं का प्रायश्चित्त समझना चाहिए। उसमें विशेष केवल इतना है कि आर्यिकाओं को त्रिकाल योग का धारण नहीं करना चाहिए। बाकी सब प्रायश्चित्त मुनियों के समान है।
(प्रा. च.) इस संसार में मनुष्यों के द्रव्य और भाव दोनों ही सूतक से मलिन हो जाते हैं
प्रायश्चित्त विधान - ५७