Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 107
________________ DET TER एग सित्थ अमोदरि एग असण भावणं । भजे अट्ठ सयं पिट्टो उववासं च साहू हि ॥ ८६ ॥ एकसिक्थामौदर्या, द्योत्वन्सुदयः सुधीः । जपेत् साष्ट शतेनिष्टो याति साधूपवासितम् ॥ ८६ ॥ " तीन काल सामायिक करें, फिर सुपात्र को दान । गृह की पाप कृत बात को, मन, वच, तन से त्याग ॥ ८६ ॥ एक चावल-भात का कण त्याग से अवमौदर्य तप को बढ़ाता हुआ सम्यक तप करने वाला बुद्धिमान उपवास और एक सौ आठ जप करता है वही महानुभाव है । अर्थात् श्रेष्ठ श्रावक है ॥ ८६ ॥ सूयगे मलिणे जाए दव्व भाव णराणं च । तत्तो जाएज्ज चारिते मलिणे सयमेव हि ॥ ८७ ॥ सूतकान्मलिनौ पावौ द्रव्यभावौ नृणामिह । ततोहि धर्म चारित्रे मलिने भवतः स्वयं ॥ ८७ ॥ बुद्धिमान एक अवमौदर्य छोड़कर, तन-मन से अच्छा तप करें। निष्ठा के साथ १०८ बार जाप कर, फिर साधू लोग उपवास करें ॥ ८७ ॥ इस संसार में मनुष्यों के द्रव्य और भाव दोनों ही सूतक से मलिन हो जाते हैं, तथा द्रव्य व भाव के मलिन होने से धर्म और चारित्र स्वयं मलिन हो जाता है ।। ८७ ।। सूयगाचरणे णत्थि दव्व सुद्धी पजायए । तओ भाव विसुद्धि च जाए वित्ति सुणिम्मलं ॥ ८८ ॥ सूतकाचरणे नात्र द्रव्य शुद्धिः प्रजायते । ततो भाव विशुद्धिः स्यात्ततो वृत्तं सुनिर्मलं ॥ ८८ ॥ विद्वान जिनेन्द्र की स्मृति, भक्ति कर, पात्र दान से प्रसन्न होय । प्राण जाये पर वे पुनः, अपने पापों की ओर न जाय ॥ ८८ ॥ TIK - à - ICICICICICI प्रायश्वित्त विधान ११०

Loading...

Page Navigation
1 ... 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140