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विक्रम संवत् १९४१ इन्नीस सौ इकहत्तर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को नियम के गंध गुण पूर्वक सारभूत मैं अंकलीकर आचार्य आदिसागर ने सभी के कल्याण के हेतु से इसको लिखा हूं। इस प्रकार इति भद्रं भूयात सब जीवों में सरलता हो।
संस्कृतानुवाद कर्ता प्रशस्ति श्रीमान् शेषनरनायक वंदितांधी, श्री आदिनाथ जिननाथ सुधर्म सूर्यः ।
श्री वर्धमान जिनरन्तिम तीर्थनाथः,
श्री गौतम गणपति श्रुतपारगामी ॥१॥ जो श्रीमान् अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी जिन की धरणेन्द्र मनुष्य और चक्रवर्ती द्वारा बंदित हैं ऐसे भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) जिनेन्द्र भगवान श्रेष्ठ धर्म के सूर्य हैं, और श्री वर्द्धमान (महावीर) भगवान जो अंतिम तीर्थंकर हैं
और उनके प्रमुख श्री गौतम गणधर (गणपति) श्रुत के पारगामी हैं, की मैं वंदना करता हूँ।
तस्यान्वये भूविदिते वभूव, यः पानन्दि प्रथमाभिधान | श्री कोड कुंदादि मुनिश्वराख्यः, सत्संयमादुद्गत चारणर्दिः ॥ २॥
उनकी परंपरा में सभी के परिचित और जिनका प्रथम नाम लिया जाता है ऐसे पद्मनंदि (कुंदकुंदाचार्य) जो कि मुनियों में प्रधान और जिनका सत्य संयम अर्थात् जो महाव्रती हैं जिन्हें ऋद्धि प्राप्त है। तदन्वये तत्सदृशोऽस्तिनान्यः, तात्कालिका शेषपदार्थ वेदी। स मोक्षमार्गे मति प्रतीते, समनशीलामल रत्लजालैः ॥३॥
उसी परंपरा में उन्हीं के समान थे और अन्य प्रकार से नहीं थे जो तत्काल किये गये प्रश्नों का समाधान करते थे और नौ पदार्थ के भी जानने वाले थे,
प्रायश्चित्त विधान - १२२