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सामायिक आदि का कुछ से उच्चारण नहीं कर आहिए। इस सरिक पाठों का मन से चिंतन कर सकती हैं। उसे दिन में प्रासुक जल से अपने अंग और वस्त्र यथा योग्य रीति से शुद्ध कर लेना चाहिए, पांचवें दिन प्रासुक जल से स्नानकर तथा यथा योग्य रीति से वस्त्र धोकर अपने गुरु के समीप जाना चाहिए। और अपनी शक्ति के अनुसार किसी एक वस्तु के त्याग करने का नियम कर लेना चाहिए ।
इसमें जो आर्यिका के लिए स्नान और वस्त्र प्रक्षालन कहा गया है सो ये दोनों ही क्रियायें गृहस्थों के सम्मान नहीं हैं। किन्तु अपने वा दूसरे के कमंडलु के प्रासुक जल से यथा योग्य शरीर को धोना और रक्त मिले हुए वस्त्र को शुद्ध करना है। यदि वह इतना भी न करे तो उतना निरंतराय आहार कैसे हो तथा सामायिक आदिक छह आवश्यक कर्म किस प्रकार बन सकेंगे। गणिन के साथ बैठना, गणिनि वा अन्य आर्यिकाओं को स्पर्श करना, धर्मोपदेश देना, पढ़ना, पढ़ाना, जिन दर्शन करना, आचार्यादिक के दर्शन करना और शास्त्र श्रवण करना आदि कार्य किस प्रकार बन सकें। यदि वह स्नानादिक नहीं करे तो चार दिन तक वह तो एकांत स्थान में मौन धारण कर, गणिनि से अलग, सामायिक आदि क्रियाओं के आचरण से रहित रहती हैं सो उसका वह रहना भी नहीं बन सकेगा। आर्यिका के साक्षात महाव्रत तो हैं नहीं, न साक्षात्, अठ्ठाईस मूलगुण हैं इसलिए उसको स्नानादिक का दोष नहीं लगता। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि वह जो स्नान और वस्त्र प्रक्षालन करती है उसका वह प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होती है। आर्यिका जो वह स्नान करती है सो सुख के लिए नहीं करती।
यदि आर्यिका अप्रासुक जल से वस्त्र धोवे तो एक उपवास, यदि वह अपने पात्र तथा वस्त्रों को प्रासुक जल से धोवे तो एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित है। इस प्रकार वह आर्यिका यथा-योग्य रीति से अपने शरीर वस्त्र आदि धोने का प्रायश्चित्त लेती है गृहस्थ के समान स्नान करने का तो उसको अधिकार नहीं है।
तिविहो विहोइ पहाणं तोएण वदेश मंत संजुतं । तोरण गिहत्थाणं मंतेण वदेण साहूणं ॥
प्रायश्चित विधान १३५
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