________________ Heavagrahaanior rrrrrrrrrrrrसामाग स्त्री प्रसूतौ तु मातुःस्थादशाहान्थनिरीक्षणं / सुकर्मानधिकारोऽस्ति यावदिशति वासरां // 102 // पक्षाहं च जिनेज्याधनधिकार सुलक्षणं / मासैकाधमशौचं हि प्रसूताया जिनमतं / / 103 / / छहढाला कार ने लिखा है कि - जे त्रिभुवन में जीव अनंत, सुख चाहे दुखते भयवंत / तातै दुख हारि सुखकार, कहे सीख गुरु करुणा धार // तथा संसार से निकलने का पार उतरने का रास्ता परम पूज्य विश्व वंद्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव, देवाधिदेव, मुनि कुंजर आचार्य परमेष्ठी आदिसागरजी महाराज अंकलीकर ने हमारे जैसे पामर प्राणियों पर करूणा कर यह प्रायश्चित्त विधान नामक ग्रंथ रूप में अपनी अमूल्य वाणी के माध्यम से मार्ग प्रशस्त किया है। वह सभी भव्यों को इस संसार से तारने में समर्थ है / जिस वाणी के ज्ञान से लोकालोक को जाने की सामथ्य प्राप्त होती है वह वाणी अपने मस्तक में धारण कर उसको नमस्कार करता हूँ। जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक। सो वाणी मस्तक चढ़ो सदा देत हूं धोक॥ यही भूत वाणी प्रस्तुत ग्रन्थ में है। अध्ययन कर संसार समुद्र में जहाज के समान स्वयं तरेगें और दूसरों को भी तारेंगे। यह वीतराग विज्ञान से संभव है और वीतराग गुरुओं से संभव है। तथा वर्तमान युग में सर्व प्रथम वीतराग विज्ञान के प्रस्तुत कर्ता आचार्य परमेष्ठी आदिसागर अंकलीकर हैं। जो मोक्ष लक्ष्मी के निकेतन हुए हैं। ॥शुभम् भूयात् // प्रायश्विश विधान - 143