Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 138
________________ दोष नहीं माना जाता है। जैसे मक्खी, हवा, गाय, स्वर्ण, अग्नि, महानदी, नाक, बायोदक और सिंहासन सस्पृश्य पाहोते। ऐसा आचार्यों ने कहा है। आतुरेतु समुत्पन्ने दशवारमनातुरा । स्नात्वा स्नात्वा स्पर्शेदनामातुराशुद्धमाप्नुयात् ।। जराभिभूता या नारी रजसा चेत् परिप्लुता। कथं तस्य भवच्छौच्यं शुद्धिस्यात्केन कर्मणा।। चतुर्थे ऽहनि संप्राप्ते स्पर्शेदन्या तुतां स्त्रियं । सा च सचै व ग्राह्या यः स्पर्श स्नात्वा पुनः पुनः॥ दश द्वादश वा कृत्वा ह्याचमनं पुनः पुनः। अन्ये च वाससा त्यागं स्नात्वा शुद्धा भवेत्तु सा ।। यदि कोई स्त्री किसी रोग वा शोक से अशक्त हो या बुढ़ापे से अशक्त हो और तह गुजरनला हो जाय तो उसके सान्दि इस प्रकार करना चाहिए कि चौथे दिन कोई निरोग सशक्त स्त्री उसे स्पर्श करें फिर स्नान करे, फिर स्पर्श करें फिर स्नान करें। इस प्रकार वह दश बार स्पर्श करे तो वह स्त्री शुद्ध हो जाती है। अंत में रजस्वला के वस्त्रों को बदलवाकर दस बारह आचमन कर तथा स्नान कर लेने से वह नीरोग स्त्री भी शुद्ध हो जाती है। यह रूग्ण रजस्वला स्त्री की शुद्धि का क्रम है। प्रस्तुत ग्रंथ के महत्वपूर्ण संदर्भः -- सूतकान्मलिनौ यातौ द्रव्यभावौ नृणामिह । ततो हि धर्मचारित्रे मलिने भवतः स्वयं ॥ ८८॥ सूतका चरणेनात्र द्रव्यशुद्धिः प्रजायते । ततो भावविशुद्धिः स्यात्ततो वृत्तं सुनिर्मलं ।। ८९ ॥ आर्तवं सौतिकं चैव मार्त्यवं तत्सुसंगमः। अशौचं कथितं देवैः द्विजानां सुब्रतात्मनां ॥ १०॥ प्रायश्चित्त विधान - १४१

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