Book Title: Prayaschitt Vidhan
Author(s): Aadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
Publisher: Aadisagar Aakanlinkar Vidyalaya

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Page 136
________________ AnimaltinikitinatijjereindiagawaypoojouryyyROMENar बुरे हो जाते हैं। यदि कोई स्त्री मीन दिनों में डाउन जरती मारेल बनाती है तो उसके बालक के अठारह प्रकार के कोढ़ रोग में से कोई शोधा शेष हो जाता है। यदि वह इन तीन दिनों में गंध लगावे या जल में डूबकर स्नान करे तो उसका बालक दुराचारी व्यसनी होता है। यदि वह आंखों में अंजन लगावे तो उसके बालक के नेत्र नाद सहित हो जाते हैं। दिन में सोने से वह बालक रात दिन सोने वाला होता है। अथवा सदा ऊंचने वाला बालक होता है। जो स्त्री इन तीन दिनों में दौड़ती है उसका बालक चंचल होता है, उत्पाती उपद्रवी होता है। ऊंचे स्वर से बोलने या सुनने से उसका बालक गूंगा बहिरा होता है । जो स्त्री इन तीन दिनों में हंसती है उसके बालक के तालु, जीभ, ओठ काले पड़ जाते हैं। इन तीन दिनों में अधिक बोलने से उस स्त्री के प्रलापी बालक होता है। जो झूठा हो लवार हो उसको प्रलापी कहते हैं। प्रलापोनृतभाषणं अर्थात् झूठ बोलने का नाम प्रलाप है। जो स्त्री रजोधर्म के समय में परिश्रम करती है उसके अत्यन्त उन्माद रोगवाला या बावला पुत्र होता है। जो स्त्री उन दिनों में पृथ्वी खोदती है उसके दुष्ट बालक होता है । जो चोड़े में खुले आकाश में सोती है उसके उन्मत्त बालक होता है। इसलिए ये अयोग्य कार्य नहीं करने चाहिए। विवेक पूर्वक रहना चाहिए। ऐसा पूर्वाचार्यों ने लिखा है। जो कोई अनाचारी, भ्रष्ट इनका दोष नहीं मानते । कितने ही लोग स्पर्श करने पर भी स्नान नहीं करते कितने ही लोग दूसरे तीसरे दिन स्नान कराकर उसके हाथ के किए हुए सब तरह के भोजन खा लेते हैं। कोई कोई लोग उन्हीं दिनों में कुशील सेवन भी करते हैं परन्तु ऐसे लोग महा अधर्मी, पातकी, भ्रष्ट और नीचातिनीच कहलाते हैं। ऐसे लोग स्पर्श करने योग्य भी नहीं है। क्योंकि रजोधर्म वाली स्त्री को पहले दिन चांडाली संज्ञा है दूसरे दिन ब्राह्मघातिनी संज्ञा है, तीसरे दिन रज की संज्ञा है और चौथे दिन शुद्ध होती है। और जो स्त्री पर पुरुषगामिनी है वह जीवन पर्यंत अशुद्ध रहती है। व्यभिचारिणी स्त्री स्नान आदि कर लेने पर भी शुद्ध नहीं होती। वह पर पुरुष का त्याग कर देने मात्र से ही शुद्ध हो सकती है। ऐसा आचार शास्त्रों में ऋषियों ने लिखा है। गणxnाम्मासम्मम्म्म्म्म्म प्रायश्चित्त विधान - १३१

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