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सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुओं को अवर्णवाद लगावे तो, उनकी निंदा करे, झूठे दोष लगावे तो प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग सहित उपवास प्रायश्चित्त है।
यदि कोई विधा, मंत्र, रात्र, यंत्र धादिक अष्टांग नामेत्त, ज्योतिष, वशीकरण, गुटिका चूर्ण आदि का उपदेश करे तो प्रतिक्रमण पूर्वक उपवास प्रायश्चित्त है। ___यदि कोई मुनि सिद्धांत के अर्थ को जानते हुए भी उपदेशन को तो आलोचना पूर्वक कायोत्सर्ग, यदिसिधात के श्रोताओं को संतोष उत्पन्न न कर क्षोभ पैदा करे तो एक उपवास प्रायश्चित्त है।
यदि कोई अप्रमत्त मुनि जीव जंतुओं से रहित प्रदेश में संस्तर को शोधे बिना सो गये तो एक कायोत्सर्ग, यदि वे मुनि प्रमाद से जीव जंतु रहित स्थान बिना शोधे सो गये तो एक उपवास, यदि अप्रमत्त मुनि जीव जंतु रहित स्थान में संस्तर को शोधे बिना सो गये तो एक उपवास, यदि कोई प्रमत्त मुनि जीव जंतु सहित स्थान संस्तर बिना शोधे सोये हों तो कल्याणक प्रायश्चित्त है।
यदि किसी मुनि से कमंडलु आदि उपकरण नष्ट हो गये हो, टूट फूट गये हों तो जितने अंगुल टूटे-फूटे हों उतने उपवास करना चाहिए। (इति मुनि प्रायश्चित्त विधान)
सह समणाणं भणियं समणीणं तहय होय मलहरणं ।
वज्जियतियाल जोमंदिणपडिमं छेदमालं च॥ जो पहले मुनिश्वरों के प्रायश्चित्त का वर्णन किया है उसी प्रकार आर्यिकाओं का प्रायश्चित्त समझना चाहिए। उसमें विशेष केवल इतना ही है कि आर्यिकाओं को त्रिकाल योग धारण तथा सूर्य प्रतिमा योग धारण ये दो प्रकार के योग धारण नहीं करना चाहिए। बाकी सब प्रायश्चित्त मुनियों के समान है।
यदि आर्यिका रजस्वला हो जाय तो उस दिन से चौथे दिन तक अपने संघ से अलग होकर किसी एकांत स्थान में रहना चाहिए। उन दिनों आचाम्ल व्रत (भात माड़ खाकर) तथा निर्विकृत भोजन अथवा उपवास धारण कर रहना चाहिए।
प्रायश्चित विधान - १३४