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संस्कृत में है तथा क्रमशः गाथायें ३६२-९४-१६६-३० हैं। महापुरुओं का ज्ञानदान भी सूत्ररूप होता है। इसी प्रकार का प्रस्तुत ग्रंथराज भी है । गुरुओं की यह महती करुणा संसारी प्राणियों पर अनादि काल से चली आ रही हैं। पूर्वानुसार ही परम गुरु परमात्मा परमेश्वर मुनिकुंजर आचार्य शिरोमणि आदिसागरजी महाराज अंकलीकर ये भी है । उन आचार्य परमेष्ठी के हम सभी प्राणी प्राणी हैं जो अपराधों को दूर करने का मार्ग बताया है लिपिबद्ध किया है।
प्रायश्चित्त विशुद्धि, मलहरण, पापनाशन और छेदन | पर्यायवाची शब्द हैं। उसमें से नौ णमोकार मंत्र का एक कायोत्सर्ग होता है। बारह कायोत्सगों का एक सौ आठ णमोकार मंत्रों का एक जप होता है। एवं जप का फल एक उपवास हैं । यहा पर उपवास शब्द का अर्थ यही है | आचाम्ल, निविडि (निर्विकृत) गुरुनिरत (पुरुमंडल) एक स्थान, उपवास ये पांचों मिलकर एक कल्याणक होता है। यदि कोई मुनि इस कल्याणक के पांचों अंगों में से आधाम्ल पांच, निविड पांच, उपवास पांच इनमें से कोई एक कर लेवे तो वह लघु कल्याणक कहलाता है। यदि पांचों कल्याणकों में से कोई एक कम करे तो उसको भिन्न कल्याणक कहते हैं। यदि वे आचाम्ल, गुरुनिरत, एक स्थान, निविड़ इनको करे तो अर्द्ध कल्याणक कहा जाता है।
यदि किसी मुनि से बारह एकेन्द्रिय जीवों का घात अज्ञानता से हो जाय तो एक उपवास । यदि छ: दो इंद्रिय जीवों का घात हो जाय तो एक उपवास, यदि चार तेइंद्रिय जीवों का घात हो जाय तो एक उपवास, यदि तीन चतुरिन्द्रिय जीवों का घाल हो जाय तो एक उपवास, यदि छत्तीस एकेन्द्रिय जीवों का घात हो जाय तो प्रतिक्रमण सहित तीन उपवास, इसी प्रकार तीन गुणें जीवों के घात का तीन गुणा प्रायश्चित्त होता है तथा अजानकारी में यदि मुनि से एक सौ अस्सी एकेंद्री, नल्ले दो इंद्री, साठ तेइंद्री, पैंतालीस चतुरिंद्रिय जीवों का वध हो जाय को अलगअलग एक-एक पंचकल्याणक उत्कृष्ट प्रायश्चित्त है।
मूलगुण के चार भेद हैं - स्थिर मूलगुण चारित्रधारी, अस्थिर मूलगुण चारित्रधारी, प्रयत्न चारित्र मूलगुण धारी, अप्रयल चारित्र मूलगुण धारी । ये ही
प्रायश्चित्त विधान - १२६