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जिनकी हमेशा मोक्षमार्ग में ही बुद्धिपूर्वक प्रीति व प्रतीति थीं, जो समस्त शील सहित थे और अमल (शुद्ध) रत्न अर्थात् रत्नत्रय का पालन करने वाले थे ऐसेस्याद्वाद धर्म परमामृत दत्तचित्तः, सर्वोपकारि बिननाथ पदाब्ज भृंगः । साहित्य कर्म कवितागम मार्गरुकै, जीयात्विरं गणीवरं गुरु आदि सिंधु ॥ ४ ॥
स्याद्वाद धर्म के परम अमृतपान करने में दत्त चित्त हैं जो सभी का उपकार करने वाले हैं और जिनेन्द्र भगवान के चरण कमल के भ्रमर (भौरे) हैं ऐसे वे गुरु आचार्य आदि सागरजी महाराज अंकलीकर चिरकाल तक जीवित रहें। angele तच्छिष्योऽहं महावीर कीर्ति मुनिपदं दैगम्बरी दीक्षया ।
वैयावृत्ति सुचारु रुप प्रतिदिनं सेवा सदा क्रीयते ॥ निज आचार्य सुपट्ट दत्त विधिवत् ऊदस्य ग्रामे मया । वंदेऽहंनिज आत्म लब्धि मनसा श्री आदि सिंधु गुरुः ॥ ५ ॥
उनका मैं शिष्य हूँ मुझे मुनि दीक्षा प्रदान करके महावीर कीर्ति मुनि नाम दिया और जिनकी मैंने सुचारू रूप से प्रतिदिन सेवा वैयावृत्ति हमेशा की है और फिर उन्होंने अत्यन्त आचार्य पद विधिवत् ऊदगाँव (महाराष्ट्र) में प्रदान किया। ऐसे मैं अपनी निज आत्म उपलब्धि हेतु मन से उन मेरे दीक्षा गुरु आचार्य आदिसागरजी महाराज अंकलीकर को नमस्कार करता हूँ।
श्रीनृपति विक्रमादित्य, राज्ये परिणते सति । द्विसहस्रे एकोपरि, शुभे संवत्सरे महा ॥ १ ॥
चैत्रमासे सितेपक्षे, त्रयोदश्यां गुरौ दिने । पूर्वा फाल्गुन्यौ संज्ञे, लग्ने कन्यायां तथा ॥ २ ॥ आदिसागर आचार्य, रचितं दंडं महाकृतिं । तत्संस्कृतानुवादेन, ग्रंथं पूर्ण कृतं महा ॥ ३ ॥
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प्रायश्चित विधान १२३
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