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इति श्रीमदाचार्यादिसागसंकलीकरण विरचितमिदं प्रायश्चित्त विधान पंचदशोत्तर-एकोनविंशति खियाब्दे भाद्रपद शुक्लापंचमी तिथी शुभ दिवसे समाप्तं || भद्रं भूयात् ॥ शुभं भवतु ।। कल्याणमस्तु॥
इस प्रकार श्रीमान् आचार्य श्री आदिसागरजी अंकलीकर के द्वारा प्रतिपादित यह प्रायश्चित्त विधान नाम का ग्रंथ सन् १९१५ भाद्रपद शुक्ल पंचमी तिथि में शुभ दिन में पूर्ण हुआ। सरल हो । शुभ हो। कल्याण हो ।
मूलग्रंथ कर्ता की प्रशस्ति णामेमि हं चउसंहं च पयावई च । सव्वं च तित्थयर तित्थय वामाणं । किच्या सुयं गणहरं सुयणाह णिच्चं ।
सुसत्थ भासण-परं परमत्थ णदि ॥१॥ चार प्रकार के पवित्र संघ को और चौबीस तीर्थंकरों को तथा वर्द्धमान तीर्थंकर श्रुत केवली गणधर श्रुतनाथ सूत्र और अर्थ का कथन कर्ता को नमस्कार करता हूँ ।। १ ।।
तेसिं परंपर घरे हि वलाद संघे। जाएज्ज कुंद कुसुन्च सुकुंदकुंदो।
तम्हेिं च ओसहमणिं गुण बंत मंतं ।
बेतिस्स-सत्थ-कलसक्कद पावम्मि ॥२॥ उस परंपरा को धारण करने वाले संघ में, कुंद पुष्प के समान, कुंदकुंद को और औषध, मणि-रल गुण, यंत्र, मंत्र, ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान को प्राप्त हूँ।
प्रायश्चित्त विधान - १२०