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नर
विधान विहित है। प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाताओं के उपदेशानुसार ज्ञात कर भव्यात्माओं को उनका आचरण करना चाहिए ।। १०५ ॥
पायच्छित्त तवो काले आसयाओ हि अरसवो ।
गणए वलयं तं सव्व दो पलंबर
प्रायश्चित्त- तपः कालेऽऽ, - श्रयादथवा जपेत् । गणभृवलयंमंत्रं, सर्वदोषं प्रशांतये ॥
१०६ ॥ तपस्या काल में प्रायश्चित्त ग्रन्थों का, आश्रय लेकर जाप करें। गणधर वलय मंत्र के जाप से, सब पापों का शमन करें ।। १०६ ।।
त्रिसंध्यमानभि नमामि भक्तिभिः ।
यजामि पंचापि गुरुर्यथा विधिः ॥
स्मरामि तान्यं च पदैर्जयान्यऽहं ।
की राम
प्रायश्चित्त पूर्वक तपस्या काल में इसका आश्रय लेकर जप करना बाहिर तथा गणधर वलय मंत्र को जपना चाहिए। इससे भी सभी प्रकार के दोषों का शमन होता है ।। १०६ ॥
ति संझं माणं च णमामि भत्तीहि । जेमि पंचं वि गुरु जहा विही ॥
सुझामि अण्णं च पदेहि जप्पए । भजामि वक्काय मणो सुमाणं एज्जं ।। १०७ ।।
भजामि वाक्काय मनोऽतिरादरात् ।। १०७ ।। आचार्य आदिसागर अंकलीकर के, अंतिम भाव प्रदर्शित करते हैं । पंच परमेष्ठी और नवकार के जप से जीवन को पावन बनाते हैं ॥ १०७ ॥
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आचार्य आदिसागर अंकलीकर की अंतिम भावना, श्री परम गुरु आचार्य भगवंत निवेदन करते हैं कि मैं पंच परमेष्ठी परम गुरुओं को तीनों संध्याओं में मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक पूर्ण भक्ति से अनेक बार नमस्कार करता हूं, प्रायश्चित विधान - ११८
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