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शुद्धिकर एकान्त में, साड़ी धुलि सफेद पहना करें। मौन पूर्वक एकाशन कर, नीरस या एकाध रस त्याग करे ॥ १८ ॥
तथा एकांत में शुद्धि कर धुली हुई सफेद धोती (साड़ी) पहिन कर मौन पूर्वक नीरस आहार से एकाशन करना अथवा एक आदि रस छोड़कर भोजन करना चाहिए ।। ९८ ॥
पसण्ण मणसा संते सेव वार तपं णमे। चउत्थ अण्हिगमेव पहाणं च मज्झ वारिणा ॥ ९९ ॥
प्रसन्नमानसाशान्ता सैव वार त्रयं नयेत् । चतुर्थेऽल्लि च सा स्नायात्मध्यान्हे शुद्ध वारिणा ।। १९ ॥ रजस्वला के तीनों दिन, शांत रूप से प्रसन्न रहे। चतुर्थ दिन दुपहरी, शुद्ध जल से स्नान करें ॥ ९९ ॥ क्षुल्लिका वा आर्यिका को रजस्वला की दशा में तीनों दिन अत्यन्त शांत भाव के साथ प्रसन्न मन से निकालने चाहिए और चौथे दिन दोपहर के समय शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए ॥ ९९ ।।
जा इत्थी हि रजस्सला पालएज्जण धम्मगं । सुछा साय मया वित्ता किरिया हीण पाविणी ॥१०॥
या स्त्री रजस्वलाऽऽचरं अबोधान्नैव पालयेत् । शूद्रा सा च मता वृत्त क्रियाहीना च पापिनी ।। १०० ।। रजस्वला के आचार, विचार, अज्ञानवश जो न पाले ये। धर्म कर्म रहित शुद्रा बनकर, पापिनी वह कहलाये ॥१००।।
जो स्त्री अपनी अज्ञानता के कारण रजस्वला के आचार विचारों को नहीं मानती, उसको शूद्रा के समान समझना चाहिए। तथा वह स्त्री धर्म कर्म से रहित पापिनी ही समझी जाती है।॥ १० ॥
पुत्तप्पसूयगं माउं दसं णिरिक्खए।
प्रायश्चित्त विधाम - ११५