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यदि अति महत्वाला माली में समान है तो उसे पूर्णतः त्याग करें - छोड़ दें और बर्तन की भी राख-भस्म से मांजकर अग्नि संस्कार द्वारा शुद्धि करना चाहिए ।। ८०
आलोयणं गु संघे तव वल्लिं तवच्चरे। वितणेज्ज तवं पंच सहस्स दोस संत ए॥४१॥ आलोच्यादौ गुरुं श्रित्वा, तपोवल्ली तपश्चरन् ।
वितनोतु तपं पंच, सहस्रं दोष शांतये ।। ८१ ॥ आलोचना गुरु के समक्ष या तपस्या में कोई गल्ती होय । इसको दोषों की शांति हेतु, ५००० जप होय ।। ८१ ॥ प्रथम श्री गुरुदेव के सानिध्य-समीप जाकर सविनय दोष निरूपण कर आलोचना करें। पुनः उनकी आज्ञानुसार तपोवल्ली तप का आचरण करता हुआ दोष की शांति के लिए पांच हजार महामंत्र णमोकार का आप करें ।। ८१ ।।
अज्झवसाय पुच्वं च उववासं सया कुणे । विहिणा तव सगं च दसविह बवं जवे ।। ८२॥
व्यवधायाऽशनेनाऽथ, उपवासतनोतुराः । विधनां च तनुसर्गान्, दशोक्त जप संयुतः॥८२ ॥ जब उपवासादि से किसी प्रकार का व्यवधान होता है। इनके दोषों की शुद्धि हेतु एक हजार जाप होता है ।। ८२ ॥
क्षुधादि पीड़ा बशात् यदि अभक्ष्य या अयोग्य भोजन प्रमाद से हो जाय तो उसकी शुद्धि को उपवास करें और दश कायोत्सर्ग एवं जप भी करें॥८२ ।।
पायच्छित्तं अहिसेगं पत्तदाणं च सत्तीए। पालेज धम्म संवेग सुद्धिं वजेज्ज धुव्वं च ॥ ८३ ।।
प्रायश्चित्ताऽभिषेक च, पात्रदानं स्वशक्तितः। तनुतां धर्म संवेगा, च्छुद्धिं व्रजति ध्रुवं ।। ८३ ॥
प्रायश्चित्त विधान - १०८