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हवइ जणणासोचं आयारस्स विसुद्धए । सावो पाओ पसूइंच तं इमं तिविहं कर ॥ ९१ ॥
भवति जननाशौचमाचरस्य विशुद्धये । मावः पातः प्रसूतिश्च तानि त्रिविगां ।। १.१. न ही मन प्रसन्न होग जिनेन्द्र मुनि का मादा अनुसरण करते हैं। क्योंकि वे तप से तपे हुए, गुण प्रवचन व चतुराई से युक्त बात
__ कहते हैं ॥११॥ ___ अपने आचार विचारों की शुद्धि के लिए जन्म संबंधी सूतक स्राव, पात
और प्रसूति के भेद से तीन प्रकार का होता है। गर्भाधान से चार महीने तक गर्भ गिर जाय तो उसे स्राव कहते हैं। पांचवे छठे महीने में गर्भ गिर जाय तो उसे पात कहते हैं। तथा सातवें, आठवें, नोवें, दशवें महीने में गर्भ बाहर आता है उसको प्रसूति कहते हैं ।। ९१॥
पस्सवे मरणेज्जाए णाहिच्छेय परं किल । माऊ पिऊ संपिडाणं असुइ पुण्णमेहए ।। ९२ ।।
प्रसवे मरणे जाते नाभिच्छेदात्परं किल । मातुः पितुः सपिंडानामशौचं पूर्णमीरितः ॥ ९२ ।। दोनों अंबुली जोड़कर, सिर झुकाकर नमन करता हूँ।
तीन शुद्धि से ही, भव सागर से पार होता हूँ ॥ १२॥ किसी के जन्म होने पर तथा नाभिच्छेदन के बाद किसी बालक के मर जाने पर माता-पिता और कुटुम्बियों को पूर्ण सूतक मानना चाहिए ।। ९२ ।।
दूरदेस मियं जायं पिउं भाउंच सूय । पुण्णमेव जणाणं च दिवसेगं च सूयगं ॥१३॥
दूरदेशमृतस्यात्र पित्रोभ्रातुश्च सूतकं । पूर्ण दर जनानां तु दिवसैकं च सूतकं ।। ९३॥
प्रायश्चित्त विधान - ११२