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__ अव-पंच-णमुक्कार, पखुत्ति गणस्सई । पंचाणं गुगुकणं च, मगकिन शवो ॥ ५॥
अप पंच नमस्कार, परिवृत्तिर्गणस्मृतिः। पंचानां सु-गुरूणां च, सद्गुणोत्कीर्तनं स्तवः॥५॥
पंच नमस्कार का जाप, समस्त साधुओं का ध्यान। करें पंच गुरुओं के, सद्गुणों का कीर्तन व स्तवन ॥५॥
महामंत्र पंच नमस्कार का पुन: पुनः स्मृति करना जय है तथा पंच परमेष्ठी गुरुओं के उत्तम सद्गुणों का कीर्तन, व्याख्यान या वर्णन करने को स्तवन कहते हैं। यहाँ पर अरहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंच परमेष्ठी बताये हैं। इन्हीं का वाचक अपराजित मंत्र णमोकार मंत्र है। इस मंत्र का बारंबार स्मरण करना जप कहलाता है। तथा इन्हीं का सद्गुण बखान करना स्तुति है 1
सामान्य से साधु लीनों को कहते हैं। विशेष विचार करने पर साधु पद साधु कोही जानना चाहिए। इसलिए आचार्य, उपाध्याय, साधु कहते हैं, साधुकोआचार्य, उपाध्याय पद नहीं कहते हैं। इसका स्पष्टीकरण यह है कि अट्ठाईस मूलगुण की अपेक्षा तीनों साधु पद समान हैं। साधु के अट्ठाईसमूलगुण अलग हैं। देखिये -
दह दंसणस्सभेया, भेया पंचेव हुंति णाणस्स। तेराविह सच्चरणं, अडचीसा हुंति साहूणं । च. स. ॥
आज्ञादि सम्यक्त्व दश, मत्यादि ज्ञान पांच, अहिंसादि महाव्रत ५, समिति ५, गुप्ति ३ ऐसे ये तेरह प्रकार या भेद वाला सम्यक् चारित्र ये साधु के अट्ठाईस गुण अलग प्रकार के जानना चाहिए। यदि कोई यहाँ पर शंका करे कि साधु के अट्ठाईस मूलगुण किस अपेक्षा से हैं और ये अट्ठाईस गुण किस अपेक्षा से हैं ? उसका समाधान यह है कि अट्ठाईस मूलगुण का वर्णन एक साधु ही अपेक्षा है।
और अट्ठाईस गुण का वर्णन नाना साधुओं की अपेक्षा से है। इसलिए अट्ठाईस मूलगुण बिना साधु पद सर्वथा नहीं होता है और अट्ठाईस गुण साधु के यथायोग्य पाये जाते हैं॥५॥
प्रायश्चित्त विधान - ७६