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जा चार कुंभ स्थापित करें। पुनः चारों विदिशाओं में बारह कलश स्थापित करें। विधिवत् अभिषेकादि क्रिया कर अपने दोषों की शुद्धि करना चाहिए ॥ १९ ॥
दिणेसु पंचसु खिव्वे, आ रस्स हि सिंचए। पंचविंसइ सक्कुं भे पुब्बवं पूयए जिर्ण ॥ २० ॥
दिनेषु पंचषु क्षिप्तौ, स्वाचारस्याभिषेचयेत् । पंचविंशति सत्कुंभैः, पूर्ववत् पूजयेज्जिनं ॥ २० ॥
पांच बार दिन में, स्व आचरण से अभिषेक करें। २५ घड़ों से पूर्व की तरह, जिनेन्द्र की पूजा करें।॥ २० ॥
यदि श्रावकाश्रमवासी की चार दिवस पर्यंत षट् कर्म आचार की हानि हो गई हो तो उस दोष की शुद्धि के लिए पच्चीस कलश अधिक अर्थात् उपरोक्त संख्या से अधिक स्थापित कर श्री जिलाभिषेक करें। तथा पूर्वोक्त विधि से पूजा स्तवनादि भी करें। यह सर्वविधि पांच दिवस पर्यंत करना चाहिए ।। २० ॥ तथा
एगो पंच समा घोसो दुसहस्सं पद भजे । सक्किद-भुत्ति कुज्जे काउस्सग्गं दिसा अवि ।। २१ ।।
एकोपंच समापोष्य, द्विसहस्रं पदं जपेत् । सकृद्भुक्ति द्वयं कुर्यात्, कायोत्सर्ग दिशापि च ।। २१॥
एकावन बार समरूप से घोषणाकर,
दो हजार पदों का जाप करना चाहिए । दो भुक्ति कर, कायोत्सर्ग दिशाओं में करना चाहिए ॥ २१॥
दो हजार बार पंच पद मंत्र का जाप करें। दो दिन एकाशन एक भुक्ति करें तथा प्रति दिशा में कायोत्सर्ग भी करें। अभिप्राय यह है कि दिग्वंदना पूर्वक श्री महामंत्र णमोकार का दो हजार जप करना चाहिए ॥ २१ ॥
पंचवग्गघडक्खेवे सुत्ताणिं जुत्ति सोडसो। मज्झ णव घडण्णेयो कोणे गो दिसितिमित्ति ।। २२।।
प्रायश्चित्त विधान - ८३