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कुंभान्विन्येसं सप्तमादि त्रिषु च तिथिमिता द्वादशांत । उत्तप्तमध्ये चैकं रव युग्मेष्वभिहत कलश स्थापनार्थं संयुतान् ॥ ३८ ॥ सूत्रबद्ध करते हुए क्रम से उसका कथन किया है। दो दो की गिनती में बंटों को भाग एक में रख दिया है। सातें बारस की तिथियों में तीन रूप में निबद्ध किया है। ऊँची जगह के मध्य में जाकर खर को युगल बना दिया है ॥ ३८ ॥
सूत्रबद्ध बढ़ते हुए क्रम से इनका कथन किया गया है अर्थात् संख्या का जो क्रम बताया गया है उसी संख्या में इनको रक्खे जाने चाहिए। प्रत्येक भाग में दो दो की संख्या में घटों को रक्खा जाता है । घट के ऊपर सप्तमी आदि तिथि तथा द्वादशी तिथि के रूपों में रक्खा जाना चाहिए। ऊंचे स्थान पर मध्य में एक खर युग्म रूप में होना चाहिए। तद्नुसार ही कलश स्थापना होनी चाहिए ॥ ३८ ॥
तिस सुत्तेण किच्चा खस्सु सिरधरा संमिया सद्दीयो । पंचकमज्झे दुविहि गिरि व कलसा अट्ठ पत्ति सुवृत्ते || बाहि पतिं दुवेविप्पड विदिसि घर्ड विंस तच्च उत्थे । पंचेगकुंभ मंतं वसु जो तद पायतुमा कुंभ वासो ॥ ३९ ॥ कृत्वाष्टाद्युक्त सूत्रै र्जलनिधि युगचोदकसंख्यात्भागात् । कुंभास्तत्पंचके त्या द्वयं नव दुतियांशे चतुष्के त्रिके च ॥
न्यस्ये द्वयांशांश युग्मतिथि परिमागणितान्वृत्तमष्टा । दशांशे मध्ये चैकं घटानां न्यसमिति मतं जैन लक्ष्मप्रमाणं ।। ३९ ॥ अष्ट ध्रुव सूत्र के माध्यम से जल से कलश भरा करें। दो और नौ के साथ चार मंत्र पंचक से ध्यान रखें । युग्म तिथि के परिणामों से क्रम से घटों का न्यास करें । दश अंश के मध्य में एक घट का न्यास करें ॥ ३९ ॥
इस प्रकार अष्ट ध्रुव सूत्र के अनुसार जल निधि पूर्वक अर्थात् कलश में
प्रायश्चित विधान- ९१